काव्यशास्त्र (Kavya Shastra in Hindi) | काव्यशास्त्र की परिभाषा | काव्य का लक्षण |काव्य के प्रकार | काव्य के अंग | काव्य के गुण : विस्तार एवं सरल भाषा में-
काव्यशास्त्र:
काव्य शास्त्र किसे कहते है?
काव्यशास्त्र की परिभाषा:
"काव्य, साहित्यिक दर्शन तथा काव्य के विज्ञान को काव्यशास्त्र कहा जाता है।"
काव्य का लक्षण | काव्य की परिभाषा
परिभाषा: कवि के द्वारा जो कार्य संपन्न हो, उसे 'काव्य' कहते हैं। संस्कृत भाषा का प्राचीन साहित्य भारत का प्रतिनिधि साहित्य है, समृद्ध साहित्य है। उसका अपना विशिष्ट साहित्य शास्त्र या काव्य शास्त्र भी है। 'काव्य लक्षण' की चर्चा अर्थात् 'काव्य लक्षण' या 'काव्य स्वरूप' का निर्धारण है। इसे 'काव्य परिभाषा' भी कहा जाता है।
काव्य का लक्षण क्या है?
काव्य का लक्षण क्या है? इस विषय को विभिन्न आचार्यों ने विभिन्न रूपों में व्यक्त किया है । वास्तव में इन आचार्यों के सामने या तो विशिष्ट काव्य कोटियां थीं। जैसे - भरतमुनि का काव्य लक्षण नाटक पर आधारित है अथवा विशिष्ट काव्य संप्रदाय । यहां हम प्रमुख आचार्यों के मतों का उल्लेख करेंगे।
संस्कृत काव्य परिभाषाएं :-
संस्कृत के अनेक आचार्यों ने काव्य की परिभाषाएं दी हैं। इनमें से कुछ काव्य परिभाषाएं एक दूसरे से मिलती जुलती हैं।
1. आचार्य भामह के अनुसार काव्य की परिभाषा-
"शब्दार्थो सहितौ काव्यम् "
अर्थात्
काव्य में शब्द और अर्थ दोनों का संयोग अनिवार्य है
2. आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य की परिभाषा-
"तद्दोषौ शब्दार्थों सगुणा वनलंकृति पुन: क्वापि"
अर्थात्
काव्य वे शब्द और अर्थ हैं जो दोष से रहित होते हैं, गुण से युक्त होते हैं तथा कहीं पर अलंकार से रहित भी होते हैं ।
3. आचार्य हेमचंद्र के अनुसार काव्य की परिभाषा-
"अदोषौ सगुणौ सालंकारौच शब्दार्थों काव्यम्"
अर्थात्
काव्य वे शब्द और अर्थ हैं जो दोष से रहित होते हैं और गुण तथा अलंकार से युक्त होते हैं ।
4. आचार्य रुद्रट के अनुसार काव्य की परिभाषा-
" ननु शब्दार्थों काव्यम्"
अर्थात्
शब्द और अर्थ के समन्वय को काव्य कहा गया है।
5. आचार्य कुंतक के अनुसार काव्य की परिभाषा-
" काव्य वे शब्द और अर्थ हैं, जो एक दूसरे के साथ होते हैं, कवि के वक्र व्यापार से युक्त होते हैं, व्यवस्थित बंधे रहते हैं और सहृदय को आनंद देते हैं।"
6. आचार्य वामन के अनुसार काव्य की परिभाषा-
" स दोषगुणालंकारहानादानाभ्याम् "
आचार्य वामन ने 'काव्यालंकार सूत्र' में काव्य को अलंकार सहित और दोष रहित माना है।
7. आचार्य दण्डी के अनुसार काव्य की परिभाषा-
"शरीरं तावदिष्टार्थं व्यवच्छिन्नापदावली।"
अर्थात्
काव्य का शरीर तो विशिष्ट अर्थ से युक्त पदावली से होता है।
8. आचार्य विश्वनाथ के अनुसार काव्य की परिभाषा-
"वाक्यम् रसात्मकम् काव्यम् "
अर्थात
रसपूर्ण वाक्य ही काव्य है।
इस काव्य लक्षण से स्पष्ट होता है कि काव्य में रस का होना महत्वपूर्ण है
9. आचार्य जगन्नाथ के अनुसार काव्य की परिभाषा-
"रमणीयार्थ प्रतिपादक: शब्द: काव्यम् "
अर्थात्
रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करने वाला शब्द काव्य है ।
10. 'अग्नि पुराण' के अनुसार काव्य की परिभाषा-
'अग्नि पुराण' में काव्य को इतिहास से अलग करते हुए उसकी परिभाषा इस प्रकार दी गई है-
" काव्य ऐसी पदावली है जो दोष रहित, अलंकार सहित और गुण युक्त हो तथा जिसमें अभीष्ट अर्थ संक्षेप में भली-भांति कहा गया हो।"
मध्ययुग में तथा आधुनिक युग में हिंदी विद्वानों ने अपने अपने ढंग से काव्य की परिभाषाएं दी हैं, लेकिन उन पर संस्कृत काव्य परिभाषाओं का या पाश्चात्य काव्य परिभाषाओं का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। संस्कृत काव्य परिभाषाओं तथा पाश्चात्य काव्य परिभाषाओं को ध्यान में रखकर काव्य की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है-
"काव्य बुद्धि की सहायता से कल्पना के द्वारा भावगत सत्य की सार्थक शब्दों में रमणीय अभिव्यक्ति है।"
काव्य की परिभाषा करते हुए या उसके लक्षण निश्चित करते समय आचार्यों के सामने दो तथ्य थे -(1) काव्य का शरीर (2) काव्य की आत्मा । काव्य के शरीर का निरूपण करते समय किसी ने शब्द पर बल दिया है तो किसी ने अर्थ पर और किसी ने शब्द और अर्थ दोनों पर । आज तक किसी ऐसी परिभाषा तक नहीं पहुंचा जा सका है जो नितांत पूर्ण हो और जहां से इस चर्चा का समापन हो सके ।
काव्य के प्रकार
काव्य दो प्रकार के होते हैं-
1. सामान्य दृष्टि के आधार पर
2. रचना के आधार पर
1. सामान्य दृष्टि के आधार पर काव्य के प्रकार
-
ये २ प्रकार के होते है।
(१) दृश्य काव्य
(२) श्रव्य काव्य
(१) दृश्य काव्य
वह काव्य जिसमे भावों का चमत्कार, संकेतों, अभिनय इत्यादि के द्वारा प्रदर्शित होते हैं तथा इन भावों से जो आनंद की अनुभूति होती हैं उसका मिश्रण ही दृश्य काव्य कहलाता हैं।
जैसे-
(अ) महाराणा प्रताप
(ब) स्कन्दगुप्त
(स) सत्य हरिचन्द्र
2. श्रव्य काव्य
वह काव्य जिसे सुनकर या पढ़कर में आनंद प्राप्त हो उसे श्रव्य काव्य कहते हैं।
जैसे-
(अ) रामचरित्र मानस
(ब) कामायनी
रचना के आधार पर काव्य के प्रकार-
ये 3 प्रकार होते हैं-
(१) पद्य काव्य
(२) गद्य काव्य
(3) चम्पू काव्य
(१) पद्य काव्य
वह विद्या जिसके अंतर्गत कविता, काव्य, गीत, भजन के साथ रस, छंद, अलंकार, यदि, गति, लय, आदि का प्रयोग होता हैं, इसे पद्य काव्य कहते हैं।
पद्य काव्य भी 2 प्रकार के होते हैं-
(अ) प्रबंध काव्य:
वह रचना जिसमे कथा-सूत्रों या छंदों की तारतम्यता में अच्छी तरह निबध्द हो, उसे प्रबंध काव्य कहते हैं।
उदाहरण- कामायनी, साकेत, रामचरित मानस।
प्रबंध काव्य के भी दो भेद होते हैं-
(1) महाकाव्य
(2) खंडकाव्य
(1) महाकाव्य-
ऐसा काव्य जिसमे जीवन का अथवा घटना विशेष का सांगोपांग चित्रण होता है तो इसे महाकाव्य कहा जाता है।
उदाहरण:
क. पृथ्वीराज रासो-
ख. पद्मावत
ग. साकेत
घ. रामचरित मानस
डं. कामायनी
(2) खंडकाव्य
ऐसा काव्य जिसमे नायक के जीवन की किसी एक घटना अथवा हृदयस्पर्शी अंश का पूर्णता के साथ अंकन किया जाता है तो इसे खंडकाव्य कहा जाता है।
उदाहरण:
क. पंचवटी
ख. सुदामा चरित
ग. मेघदूत
2. गद्य काव्य
गद्यकाव्य गद्य की ऐसी विधा जिस गद्य में भावों को इस प्रकार अभिव्यक्त करना कि वह काव्य के निकट पहुँच जाए वही गद्य काव्य अथवा गद्य गीत कहलाता है। गद्यकाव्य को साहित्य की आधुनिक विधा भी कहते है।
दुसरे शब्दों में -
"गद्यकाव्य, गद्य की ऐसी विधा है, जिसमे कविता जैसी रसमयता, रमणीयता, चित्रात्मकता और संवेदनशीलता विद्यमान होती है।"
3. चम्पू काव्य
काव्य की वह रचना जिसमें अधिकतर गद्य के माध्यम से किसी विषय का काव्यात्मक विवरण होता हैं उसे चम्पू काव्य कहते हैं।
विकिपीडिया के अनुसार-
चम्पू श्रव्य काव्य का एक भेद है, अर्थात गद्य-पद्य के मिश्रित् काव्य को चम्पू कहते हैं।
उदाहरण-
क. साहित्य देवता
ख. साधना
ग. प्रवाल
काव्य के अंग
काव्य के 3 अंग हैं-
1. रस
2. छंद
3. अलंकार
रस, छंद तथा अलंकार की परिभाषा को उदाहरण सहित समझने के लिए नीचे दिए गए टॉपिक्स को पढ़ें-
पढ़ें-
रस - परिभाषा, रस के भेद एवं उदाहरण
अलंकार - परिभाषा, भेद एवं उदाहरण
काव्य के गुण:-
परिभाषा:
काव्य की शोभा को संपादित करने वाले या काव्य की आत्मा को प्रकाशित करने वाले तत्व या विशेषता 'गुण' हैं। ये गुण शब्द और अर्थ के धर्म हैं । काव्यशास्त्र के अंतर्गत -दोषाभाव, दोष का वैपरीत्य, काव्य की शोभा करने वाले धर्म (वामन ),रसरूप अंगी के आश्रित करनेवाले (आनंदवर्धन),रस रूप अंगी के धर्म तथा रस के उत्कर्ष के कारण रूप धर्म (मम्मट) हैं।
आचार्य वामन गुणों के प्रतिष्ठाता आचार्य हैं। उनके अनुसार-
" काव्यशोभाया: कर्तारो धर्मा गुणा: "
अर्थात्
गुण काव्य मूल शोभा(सौंदर्य) के तत्व हैं। ये गुण शब्द और अर्थ के धर्म हैं और काव्य के लिए अनिवार्य हैं।
ये वणसंघटन, शब्द योजना ,शब्द चमत्कार, शब्द प्रभाव और अर्थ की दीप्ति पर आश्रित हैं।
काव्य के गुणों की संख्या:-
काव्य गुणों की संख्या के संबंध में भी विद्वानों में मतभेद है।
आचार्य भरत मुनि ने अपने 'नाट्यशास्त्र' में निम्नलिखित दस गुण स्वीकार किए हैं-
"श्लेष: प्रसाद: समता समाधि
माधुर्य मोज: पदसौकुमार्यम् ।।
अर्थस्य च व्यक्तिरुदारता च,
कान्तिश्च काव्यस्य गुणा: दशैते ।"
अर्थात्
काव्य में निम्न दस गुण होते हैं-
- श्लेष
- प्रसाद
- समता
- समाधि
- माधुर्य
- ओज
- पदसौकुमार्य
- अर्थव्यक्ति
- उदारता
- कांति
आचार्य भरत मुनि के पश्चात भामह ने भी दस गुण को स्वीकार किए हैं तथा प्रसाद और माधुर्य की सर्वाधिक प्रशंसा की हैं।
आचार्य दंडी ने भी भरतमुनि के अनुसार ही काव्य के दस गुण माने हैं
"श्लेष: प्रसाद:समता माधुर्य सुकुमारता।
अर्थव्यक्तिरुदारत्वमोज: कान्ति
समाधय ।।
इति वैदभमार्गस्य प्राणा: दशगुणास्मृता:।
एषां विपर्यय:प्रायो दृश्यतेगौडवत्र्मनि।।"
अर्थात्
काव्य में श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता, ओज, कांति और समाधि -ये दस गुण होते हैं। दस गुण वैदभीं मार्ग के प्राण माने जाते हैं तथा इनकी विपरीतता गौडी मार्ग में देखी जाती है।
आचार्य वामन ने भी दस ही गुण माने हैं, परंतु प्रत्येक गुण के दो भेद- शब्दगुण और अर्थ गुण के रूप में कर दिये हैं। इस प्रकार दोनों प्रकार के भेदों को मिलाकर बीस(20) गुण हुए।
आचार्य भोजराज ने गुणों की संख्या 48 मानी हैं। इनमें 24 शब्दगुण तथा 24 अर्थगुण स्वीकार किए गए हैं।
'अग्निपुराण' में अठारह गुण माने गए हैं- जो शब्दगुण, अर्थगुण और उभयगुणों में विभक्त हैं ।
आचार्य मम्मट ने अपने ' काव्य प्रकाश' में तीन गुण स्वीकार किए हैं-
1. माधुर्य
2. ओज
3. प्रसाद
आचार्य विश्वनाथ ने 'साहित्य दर्पण' में तथा पंडितराज जगन्नाथ ने ' रसगंगाधर' में इन तीन गुणों को स्वीकार किया हैं-
1. माधुर्य
2.ओज
3. प्रसाद
हिंदी के आचार्यों ने प्राय: मम्मट और विश्वनाथ का अनुसरण कर तीन गुणों को ही मान्यता प्रदान की है। ये तीन गुण इस प्रकार हैं-
(1) माधुर्य गुण
(2) ओज गुण
(3) प्रसाद गुण
(1) माधुर्य गुण
माधुर्य का शब्दार्थ है - मधुर होने की विशेषता, मिठास, रोचकता।
काव्य गुण के प्रसंग में माधुर्य शब्द का अर्थ विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूप में ग्रहण किया है।
आचार्य दण्डी के अनुसार माधुर्य का तात्पर्य है-
'रसमयता , रससे सम्पन्नता।
भरत ने श्रुतिमधुरता को माना है।
अंत: माधुर्य का अर्थ सरसता, शिष्टता एवं सुसंस्कृतता है।
आचार्य वामन के अनुसार पदों की पृथकता का अर्थ है- 'समास रहित होना।' इसमें दीर्घ समास का निषेध होता है।
ध्वनिवादी आचार्य माधुर्य का दूसरा ही अर्थ करते हैं-
"सहृदयों को द्रवित करने वाला गुण माधुर्य है ।"
आचार्य मम्मट ने आह्लादकता और श्रृंगार रस में द्रवित करने की विशेषता को ही माधुर्य माना है।
इस प्रकार माधुर्य का अर्थ हुआ -
"श्रुति मधुरता, समासरहितता, आद्रता, चित्त को द्रवित करने की विशेषता , भावमयता,आह्लादकता ।"
साहित्यदर्पणाकार के मत से ट,ठ,ड,ढ को छोड़कर 'क ' से लेकर 'म 'तक के वर्ण तथा मूर्धन्य वर्ण और अन्त्य वर्णों के प्रयोग से माधुर्य गुण का संपादन होता है।
श्रृंगार रस की रचनाओं में माधुर्य गुण विशेष पाया जाता है। इसके अतिरिक्त हास्य,करुण और शांत आदि रसों से युक्त रचनाओं में भी माधुर्य गुण पाया जाता है।
इस प्रकार की रचना समास रहित या अल्प समास युक्त होनी चाहिए तभी माधुर्य गुण युक्त कही जा सकती है।
माधुर्य गुण के उदाहरण:-
1." निरख सखी ये खंजन आये ।
फेरे उन मेरे रंजन ने इधर नयन
मन भाये ।"
2. " बतरस लालच लाल की ,
मुरली धरी लुकाय ।
सौंह करै भौंहनी हसै,
देश कहि नटि जाय ।।"
3." कंकन किंकिनी नूपुर धुनि सुनि,
कहत लखन सम राम हृदय गुनि ।
मानहुं मदन दुंदुभी दीन्हि,
मनसा विश्व विजय कर लीन्हि ।।"
4. " बसों मोरे नैनन में नंदलाल,
मोहिनी सूरत सांवरी सूरत नैना बने
बिसाल ।"
5. "कबहुं सहित मांगते आदि करैं,
कबहूं प्रतिबिंब निहारि डरैं ।
अवधेस के बालक चारि सदा,
तुलसी मन मंदिर में बिहरैं ।।"
(2) ओज गुण
'ओज 'का शाब्दिक अर्थ है - तेज, प्रताप, दीप्ति।
काव्य के अंतर्गत जो गुण सुनने वाले के मन में उत्साह, वीरता, आवेश आदि जागृत करने की क्षमता रखता हो, वह 'ओज 'कहलाता है।
आचार्य दंडी के अनुसार समासयुक्त पदों की बहुलता से ओज गुण संपन्न होता है।
आचार्य वामन के अनुसार- रचना का गाढ़त्व अर्थात् अवयवों का अक्षर- विन्यास का संश्लिष्टत्व, संयुक्ताओं का संयोग ओज गुण के लिए आवश्यक होता है।
ओज गुण का प्रयोग वैदभ मार्ग के गद्य तथा गौड़ीय मार्ग के गद्य और पद्य दोनों में होता है ।
ध्वनि के अनुयायी आचार्यों के मत से चित्त का विस्तारक या चित्त का दीप्ति कारक गुण ओज है। संयत, संक्षिप्त शब्दों में अधिक भाव या अर्थ की अभिव्यक्ति ओज गुण का लक्षण है ।
ओज गुण के लिए वर्गों के आद्य और तृतीय वर्णों की संयुक्ताक्षरता, ट, ठ, ढ, श, ष आदि का प्रयोग, दीर्घ समासयुक्त पदों की बहुलता आवश्यक होती है ।इसके अतिरिक्त रेफ युक्त वर्णों का प्रयोग अधिक किया जाता हैं।
वीर रस की रचनाओं में ओज गुण अधिक पाया जाता है। इसके अतिरिक्त रौद्र, भयानक ,बीभत्स आदि रसों की रचनाओं में भी ओज गुण पाया जाता है।
ओज गुण के उदाहरण
1. साजि चतुरंग-सैन अंग मैं उमंग धारि।
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत हैं ।
भूषण भनत नाद-बिहद नगारन के,
नदी- नद मद गैबरन के रलत हैं ।
2. अग्नि -सी धधक उबाल रख रक्त में
शत्रु दमन कर उसे गिरा गर्त में ।
वीर बन शक्ति रख, हो सदा विजयी
आग बन राख कर, हो सदा विजयी।।
3. "चमक उठी सन् सत्तावन में,
वह तलवार पुरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुख ,
हमने सुनी कहानी थी
खूब बड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी ।"
4. प्रबल,प्रचंड, बरिबंड बाहुदंड बीर
धाए जातुधान हनुमान लियों घेरि कै।
महाबल -पुंज कुंजशरि ज्यों गरजि भट
जहां -तहां पटके लंगूर फेरि-फेरि कै।"
5. "कोसिक सुनहु मंद येहु बालक ।
कुटिलु कालबस निज कुल घालकु।।
भानुबंस राकेस कलंकू ।
निपट निरंकुसु अबुधु असंकू ।।
कालकवलु होइहि छन माहीं ।
कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।"
6. चिक्करहिं दिग्गज डोले महि,
अहि लोल सागर खर भरे ।
मन हरख सम गंधर्व सुरमुनि,
नाग किन्नर दु:ख टरें ।
कटकटहिं मर्कट विकट भट बहु,
कोटि कोटिन धावहिं ।
जय राम प्रबल प्रताप कौसल,
नाथ गुन गन गावहिं ।।"
(3) प्रसाद गुण
प्रसाद का शाब्दिक अर्थ है- प्रसन्न होना, खिल जाना या विकसित होना।
ऐसी काव्य रचना जिसको पढ़ते ही अर्थ ग्रहण हो जाता है, वह प्रसाद गुण से युक्त मानी जाती है। अर्थात् जब बिना किसी विशेष प्रयास के काव्य का अर्थ स्वत: ही स्पष्ट हो जाता है, उसे प्रसाद गुण युक्त काव्य कहते हैं।
आचार्य भरत मुनि के अनुसार-
किसी रचना को सुनते ही अर्थ समझ में आ जाए प्रसाद गुण कहलाता है।
आचार्य दंडी के अनुसार -
प्रसिद्ध अर्थों में शब्द का ऐसा प्रयोग जिसे सुनते ही अर्थ समझ में आ जाए प्रसाद गुण हैं।
आचार्य भिखारीदास के अनुसार-
"मन रोचक अक्षर परै,
सोहे सिथिल शरीर।
गुण प्रसाद जल सूक्ति ज्यों,
प्रगट अर्थ गंभीर ।।"
ध्वनि के अनुयायी आचार्यों के मतानुसार सभी रसों और सभी रचनाओं में ऐसा धर्म जो कि सामाजिक के हृदय में भाव या अर्थ की शीघ्र व्याप्ति कर दे प्रसाद गुण है ।
जिस प्रकार सूखे इंधन में अग्नि और स्वच्छ वस्त्र में जल तुरंत फैल जाता है, उसी प्रकार चित्त्त को रसों में और रचना में जो तुरंत व्यक्त कर दे वह गुण प्रसाद है ।
इस प्रकार प्रसाद गुण वहां होता है- जहां सरल, सहज तथा भावव्यंजक शब्दावली का प्रयोग किया जाता है।
'स्वच्छता ,' 'स्पष्टता' और' ग्रहणशीलता' प्रसाद गुण की प्रमुख विशेषताएं मानी जाती है।
प्रसाद गुण सभी रचनाओं तथा सभी रसों में पाया जाता है। सभी युगों के श्रेष्ठ कवियों ने इस गुण का प्रयोग किया है।
प्रसाद गुण के उदाहरण
1. "वह आता,
दो टूक कलेजे के करता,
पछताता पथ पर आता ।"
2. " जिस -जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस -उस राही को धन्यवाद !
जीवन अस्थिर , अनजाने ही
हो जाता पथ पर मेल कहीं
सीमित पग-डग, लंबी मंजिल
तय कर लेना कुछ खेल नहीं ।।"
3. "मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोए थे
सोचा था , पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे ।
रुपयों के कलदार मधुर फसले
खनकेंगी
और, फूल-फूल कर,
मैं मोटा सेठ बनूंगा !
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा
बंध्या मिट्टी ने न एक भी पैसा
उगला ! "
सपने जाने कहां मिटे,
सब धूल हो गए!"
4. नर हो न निराश करो मन को ।
काम करो ,कुछ काम करो ।
जग में रहकर कुछ काम करो ।।"
5.हे प्रभो ! आनंददाता ज्ञान हमको
दीजिए ।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए।
लीजिए हमको शरण में हम सदाचारी
बने।
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक व व्रतधारी बने ।"
6." छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथा
आज कहूं ?
क्या यह अच्छा नहीं की औरों की
सुनता ,मैं मौन रहूं ।"
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