हिंदी की प्रमुख बोलियों का परिचय

हिंदी की प्रमुख बोलियों का परिचय


    हिन्दी की 18 बोलियाँ (उपभाषाएँ) - सामान्य परिचय एवं जानकारी (1) खड़ीबोली (2) ब्रजभाषा (3) हरियाणी (4) बुंदेली (5) कन्नौजी (6) अवधी (8) छत्तीसगढ़ी (9) पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी) (10) पूर्वी राजस्थानी (जयपुरी) (11) उत्तरी राजस्थानी( मेवाती) (12) दक्षिणी राजस्थानी (मालवी) (13) भोजपुरी (14) मगही (16) पश्चिमी पहाड़ी (17) मध्यवर्ती पहाड़ी (गढ़वाली -कुमाऊंनी) (18) पूर्वी पहाड़ी (नेपाली)

    हिंदी में कुछ लोगों ने भाषा के लिए 'बोली' नाम का प्रयोग किया है। एक भाषा के अंतर्गत कई बोलियां होती हैं। जैसे हिंदी क्षेत्र में खड़ीबोली,ब्रज, अवधी, बुंदेली आदि बोलियां हैं और एक बोली में कई उपबोलियां होती हैं। जैसे-बुंदेली बोली के अंतर्गत लोधान्ती, राठौरी, तथा पंवारी आदि।


    डॉ. श्यामसुंदरदास ने बोली का प्रयोग 'उपबोली'(Sub-dialect) या 'पैटवा' के लिए किया है, पर अन्य प्राय: सभी लोगों ने इसे dialect का पर्याय माना है। हिंदी के कुछ भाषा- विज्ञानविद् बोली के लिए 'विभाषा', 'प्रांतीय भाषा' का भी प्रयोग करते हैं।


    आज जिसे हम हिंदी भाषा कहते हैं उसमें कोई एक भाषा नहीं है, बल्कि इसमें कई प्रदेशों की बोलियां सम्मिलित हैं। हिंदी भाषा के प्रसार एवं विस्तार का प्रश्न वैश्विक हो चला है‌। एशिया के कई देशों में हिंदी भाषा बोली और समझी जाती है। जबकि सैकड़ों देशों में हिंदी भाषा का अध्यापन कार्य चल रहा है । इस प्रकार यह सांस्कृतिक संपर्क का कार्य कर रही है।


    हिंदी भाषा का क्षेत्र

    हिंदी भाषा का क्षेत्र हिमाचल प्रदेश, हरियाणा ,राजस्थान, दिल्ली, पंजाब का  कुछ भाग, बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड तथा मध्य प्रदेश हैं, जिसे हिंदी (भाषी) प्रदेश कहते हैं।


    हिंदी की प्रमुख बोलियां

    हिंदी भाषा की उपभाषाओं एवं बोलियों का हम पहले अध्ययन कर चुके है। हिंदी की पांच उपभाषाएं हैं, जिनके अंतर्गत मुख्यतः अठारह बोलियां हैं, जो निम्नलिखित हैं-


    उपभाषाएं             बोलियां

    १.पश्चिमी हिंदी     १. खड़ीबोली

                         ‌‌ ‌    २. ब्रजभाषा

                              ३. हरियाणी

                               ४. बुंदेली

                               ५. कन्नौजी


    २. पूर्वी हिंदी          १. अवधी

                                २. बघेली

                                ३. छत्तीसगढ़ी


    ३. राजस्थानी        १.पश्चिमी राजस्थानी

                               (मारवाड़ी)


                       ‌       २. पूर्वी राजस्थानी

                                   (जयपुरी)


                              3. उत्तरी राजस्थानी

                                    ( मेवाती )


                              ४.दक्षिणी राजस्थानी

                                      (मालवी)


    ४. बिहारी         १. भोजपुरी

                           २. मगही

                           ३. मैथिली


    ५. पहाड़ी         १. पश्चिमी पहाड़ी


                           २. मध्यवर्ती पहाड़ी

                        (कुमाऊनी, गढ़वाली)

                          

                           ३. पूर्वी पहाड़ी 

                                (नेपाली )


    (1) खड़ीबोली

    ' खड़ीबोली' शब्द का प्रयोग  दो अर्थों में होता है। एक तो साहित्यिक हिंदी खड़ीबोली के अर्थ में और दूसरे दिल्ली-मेरठ के आसपास के लोक- बोली के अर्थ में । यहां दूसरे अर्थ में ही इस शब्द का प्रयोग किया जा रहा है।

    खड़ी बोली का उद्भव शौरसेनी अप-भ्रंश के उत्तरी रूप से हुआ है। इसका क्षेत्र देहरादून का मैदानी भाग,मेरठ, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, दिल्ली का कुछ भाग,बिजनौर, रामपुर तथा मुरादाबाद है। इस पर हिंदी तथा उर्दू , दोनों का समान रूप से अधिकार है। इसे कौरवी, हिंदुस्तानी, नागरी हिंदी अथवा सर-हिंदी भी कहा जाता है। मुसलमानी प्रभाव के अपेक्षाकृत निकट होने के कारण खड़ीबोली पर अन्य भाषाओं की अपेक्षा अरबी- फारसी का प्रभाव अधिक पड़ा है। इसमें अरबी -फारसी के  अर्धतत्सम तथा तद्भव रूप ग्रहण किए गए हैं। 

    लोक साहित्य की दृष्टि से खड़ी बोली बहुत संपन्न है। इसमें पवाड़ा, नाटक, लोककथा, लोकगीत आदि पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। इनका काफी अंश प्रकाशित भी हो चुका है। इस बोली के बोलने वालों की संख्या ५३ लाख है। आजकल प्राय: भारत के सभी भागों में इसका प्रयोग होने लगा है ।


    (2) ब्रजभाषा

    'ब्रज' का पुराना अर्थ 'पशुओं या गौओं का समूह ' या 'चरागाह ' आदि है। पशुपालन के प्राधान्य के कारण यह क्षेत्र ब्रज कहलाया,और इसी आधार पर इसकी बोली ब्रज कहलायी।  इसके अन्य नाम माथुरी तथा नागभाषा हैं ।इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश के मध्यवर्ती रूप से हुआ है। इस भाषा का केंद्र मथुरा- वृंदावन है।इसके अतिरिक्त ब्रजभाषा आगरा, अलीगढ़ ,धौलपुर, मैनपुरी, एटा, बदायूं ,बरेली तथा आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती है।साहित्य और लोक साहित्य दोनों ही दृष्टियों से ब्रजभाषा बहुत संपन्न है। सूरदास ,नंददास,देव, रसखान, बिहारी, रत्नाकर आदि इसके प्रमुख कवि हैं।

    सूरदास,परमानंददास,चतुर्भुजदास, नंददास आदि कवियों का कृष्णकाव्य,सम्पूर्ण रीतिकाव्य तथा भारतेंदु की कविताएं ब्रज भाषा में ही मिलती है । सूरदास का 'सूरसागर ' तथा 'साहित्य लहरी' ब्रजभाषा की उत्कृष्ट रचनाएं हैं। हिंदी प्रदेश के बाहर भी भारत के अनेक क्षेत्रों में ब्रज भाषा में साहित्य रचना होती रही है।  ब्रज भाषा बोलने वालों की संख्या ७९ लाख है।


    (3) हरियाणी

    हरियाणा प्रदेश की बोली हरियाणी  कहलाती है। इसका विकास उत्तरी शौरसेनी अपभ्रंश के पश्चिमी रूप से हुआ है। इसका क्षेत्र मोटे रूप से रोहतक ,पानीपत, करनाल, कुरुक्षेत्र, हिसार  तथा दिल्ली  का देहाती भाग है। इसके अन्य नाम बांगरू, जाटू, देसड़ी आदि हैं। यह पंजाबी, राजस्थानी तथा खड़ीबोली के सम्मिश्रण का फल है। डॉ. धीरेंद्र वर्मा इसे हिंदी की बोली अथवा खड़ीबोली का ही एक रूप समझते हैं। हरियाणी में केवल लोक साहित्य है, जिसका कुछ अंश मुद्रित भी है। हरियाणी बोलने वालों की संख्या २२ लाख है।


    (4) बुंदेली

    यह बुंदेलखंड की बोली है, इसलिए बुंदेलखंडी के नाम से भी प्रसिद्ध है।

    बुन्देला नामक राजपूत जाति की बोली होने के कारण यह बुंदेली कह- लाती है। इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। इसका क्षेत्र झांसी ,जालौन, हमीरपुर,ग्वालियर, भोपाल ,ओरछा, सागर, सिवनी नृसिंहपुर, होशंगाबाद तथा आसपास का क्षेत्र है। बुंदेली में लोक साहित्यकाफी है,  जिसमें ईसुरी के फाग बड़े प्रसिद्ध हैं। हिंदी प्रदेश की प्रसिद्ध लोकगाथा 'आल्हा', बुंदेली की एक उपबोली बनाफरी में लिखा गया था, जिसे हिंदी साहित्य में भी स्थान मिला है। इसके बोलने वालों की  संख्या ६९ लाख के लगभग है।


    (5) कन्नौजी

    कन्नौज इस बोली का केंद्र है , अत: इसका नाम कन्नौजी पड़ा है। इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है।यह इटावा, फर्रुखाबाद, हरदोई, पीलीभीत ,शाहजहांपुर तथा कानपुर में बोली जाती है। इसके अन्य नाम कन्नौजिया तथा कनउजी हैं।कन्नौजी का ब्रजभाषा के साथ अत्यंत निकट का  संबंध है। कन्नौजी में केवल लोक साहित्य मिलता है। इसके बोलने वालों की संख्या ४५‌ लाख है।


    (6) अवधी

    इस बोली का केंद्र अयोध्या है । 'अयोध्या 'का ही विकसित रूप 'अवध 'है जिससे ' अवधी ' शब्द बना है।  अवधी का क्षेत्र लखनऊ, इलाहाबाद, फतेहपुर, मिर्जापुर, उन्नाव, रायबरेली, सीतापुर, गोंडा, फैजाबाद ,बस्ती, बहराइच,सुल्तान- पुर ,प्रतापगढ़ तथा बाराबंकी आदि है। इसके अन्य नाम कोशली, बैस-वाड़ी तथा  उत्तराखंडी  हैं।अवधी में साहित्य तथा लोक साहित्य  दोनों ही पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। 

    अवधी के प्रसिद्ध कवि मुल्ला दाऊद, कुतुबन, जायसी , तुलसीदास ,उसमान, सबलसिंह आदि हैं। जायसी का    'पद्मावत ',तुलसीदास का 'रामचरित- मानस'  उसमान की 'चित्रावली' तथा कुतुबन की 'मृगावती' अवधी की उत्कृष्ट रचनाएं हैं। अवधी बोलने वालों की संख्या लगभग १ करोड़ ४२ लाख है।


    (7) बघेली

    बघेले राजपूतों के आधार पर रीवां तथा आसपास का इलाका बघेल-खंड  कहलाता है और वहां की बोली को बघेलखंडी या बघेली कहते हैं। इसका केंद्र रीवां है इसलिए इसे रीवाई भी कहते हैं। बघेली का उद्भव अर्द्धमागधी अपभ्रंश के ही एक क्षेत्रीय रूप से हुआ है। यद्यपि जनमत इसे अलग बोली  मानता है, किंतु भाषावैज्ञानिक स्तर पर यह अवधी की ही एक उपबोली ज्ञात होती है। यह अवधी के दक्षिण में बोली जाती है ।यह दमोह, सतना, बालाघाट ,जबलपुर,फतेहपुर,नागौद, मैहर ,मंडला तथा शहडोल जिलों में भी बोली जाती है।कुछ अपवादों को छोड़कर बघेली में केवल लोक साहित्य हैं। इसके बोलने वालों की संख्या ४६  लाख है।


    (8) छत्तीसगढ़ी

    छत्तीसगढ़ की बोली होने के कारण इसका नाम छत्तीसगढ़ी पड़ा हैं। अर्द्धमागधी अपभ्रंश  के दक्षिणी रूप से इसका विकास हुआ है। इसका क्षेत्र सरगुजा, कौरिया, दुर्ग, बिलासपुर ,रायगढ़ , रायपुर , नंदगांव काकेर  आदि हैं। इसके अन्य नाम खल्टाही,लरिया,खलोटी,खल्हाटी भी  हैं।छत्तीसगढ़ी में लोक साहित्य है। इसके बोलने वालों की संख्या  ३८ लाख है । 


    (9) पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी)

    राजस्थानी का यह रूप पश्चिमी राजस्थान  अर्थात् जोधपुर, अजमेर, किशनगढ़,मेवाड़ ,सिरोही,जैसलमेर, बीकानेर आदि में बोला जाता है। शौरसेनी अपभ्रंश से इसका विकास हुआ है।इसका अन्य नाम अगरवाला है ।मारवाड़ी में साहित्य तथा लोक साहित्य दोनों ही पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। मीरा के पद मारवाड़ी में ही रचित हैं। हिंदी साहित्य की वीरगाथाएं मारवाड़ी में ही लिखी गई थीं।


    (10)  पूर्वी राजस्थानी (जयपुरी)

    राजस्थानी का यह रूप पूर्वी राजस्थान अर्थात् जयपुर ,अजमेर किशनगढ़ आदि में बोला जाता है। इसका केंद्र जयपुर है, इसलिए इसका नाम जयपुरी पड़ा। इसके अन्य नाम ढूंढाणी ,झाड़साही तथा काईं कुईं हैं। शौरसेनी अपभ्रंश से इ़सका विकास हुआ है़। जयपुरी में केवल लोक साहित्य उपलब्ध है।


    (11) उत्तरी राजस्थानी (मेवाती)

    राजस्थानी का यह रूप उत्तरी राजस्थान अर्थात् अलवर,भरतपुर, गुडगांव  तथा आसपास बोला जाता है। मेओ जाति के इलाके  मेवात  के नाम पर इसे ' मेवाती ' भी कहते हैं। इसका उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। इसकी एक मिश्रित बोली अहीरवाटी है जो गुड़गांव, दिल्ली तथा करनाल के पश्चिमी क्षेत्रों में बोली जाती है।  इस पर हरियाणी का बहुत प्रभाव है।  मेवाती में केवल लोक साहित्य उपलब्ध है।


    (12) दक्षिणी राजस्थानी (मालवी)

    राजस्थानी का यह रूप  दक्षिणी राजस्थान अर्थात् इंदौर, उज्जैन, देवास ,रतलाम भोपाल,होशंगाबाद तथा इनके आसपास बोला जाता है।

    इसकी प्रतिनिधि बोली मालवी है, जिसका मुख्य क्षेत्र मालवा है।शौर- सेनी अपभ्रंश से  इसका विकास हुआ है। इसके अन्य नाम आवंती तथा अहीरी हैं ।मालवी में कुछ साहित्य तथा पर्याप्त लोक साहित्य उपलब्ध है।


    (13) भोजपुरी

    बिहार के शाहाबाद जिले के भोजपुर गांव के नाम के आधार पर इस बोली का नाम 'भोजपुरी' पड़ा है। इसका  विकास मागधी अपभ्रंश के पश्चिमी रूप से हुआ है। इस बोली के मुख्य क्षेत्रों में बनारस , जौनपुर, मिर्जापुर, गाजीपुर ,बलिया ,गोरखपुर,देवरिया, आजमगढ़ ,बस्ती,शाहाबाद, चंपारण सारण तथा पालामऊ आदि आते हैं। इसका अन्य नाम भोजपुरिया है। हिंदी -प्रदेश की बोलियों में भोजपुरी बोलनेवाले सबसे अधिक हैं। भोजपुरी में पर्याप्त लोक साहित्य  मिलता है। भारतेंदु, प्रेमचंद ,प्रसाद आदि इसी क्षेत्र के रहे हैं, किंतु साहित्य में इन्होंने भोजपुरी का प्रयोग नहीं किया। आज भोजपुरी फिल्मों ने इस बोली को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दी है।


    (14) मगही

    संस्कृत 'मगध' से विकसित शब्द 'मगह 'पर इसका नाम आधारित है। इसका विकास मागधी अपभ्रंश से हुआ है। यह बोली मुख्य रूप से पटना ,गया, पलामू, हजारीबाग, मुंगेर, भागलपुर के आसपास बोली जाती है। इसमें लोक साहित्य काफी है। कुछ ललित साहित्य भी उपलब्ध है।


    (15) मैथिली

    मिथिला प्रदेश की भाषा होने के कारण इसका नाम मैथिली पड़ा है। इसका विकास मागधी अपभ्रंश के मध्यवर्ती रूप से हुआ है। यह बोली हिंदी और बांग्ला क्षेत्र की संधि पर मिथिला में बोली जाती है। यह बोली मुख्य रूप से दरभंगा, मुजफ्फरपुर, पूर्णिया, चंपारन, मुंगेर, भागलपुर   आदि में बोली जाती है। इसके अन्य नाम देसिल बअना तथा तिरहुतिया हैं। साहित्य तथा लोक साहित्य दोनों ही दृष्टियों से मैथिली बहुत सम्पन्न है।  इसमें साहित्य -रचना अत्यंत प्राचीन काल से होती चली आयी है । मैथिल कोकिल विद्यापति तो हिंदी भाषा का गौरव है ही । इनके अतिरिक्त गोविंददास, रणजीतलाल, हरिमोहन झा आदि भी इनके अच्छे साहित्य- कार हैं । विद्यापति की ' विद्यापति पदावली ' मैथिली की उत्कृष्ट रचना है। सच तो यह है कि 'विद्यापति पदावली '“साहित्य की अमूल्य निधि है।


    (16) पश्चिमी पहाड़ी

    पश्चिमी पहाड़ी बोली 'पहाड़ी' की पश्चिमी बोलियों का एक सामूहिक  नाम है ।इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। जौनसार, सिरमौर ,शिमला ,मंडी, चम्बा, चकराता और लाहौल-स्पिति आदि में तथा आसपास इसका क्षेत्र है। इसमें हिमाचल प्रदेश की अनेक बोलियां आती है। इसमें लगभग 20 बोलियां हैं, जिनमें चंबाली, बघाटी, जौनसारी , सिरमौरी , चमेआली तथा क्योंठलीआदि प्रमुख हैं।


    (17) मध्यवर्ती पहाड़ी (गढ़वाली - कुमाऊंनी)

    मध्यवर्ती पहाड़ी बोली के दो रूप हैं-

    (क) गढ़वाली   (ख) कुमाऊंनी


    (क) गढ़वाली

    उत्तराखंड के गढ़वाल खण्ड  की बोली होने के कारण इसका नाम गढ़वाली पड़ा है । यह बोली मुख्य रूप से उत्तरकाशी, टेहरी गढ़वाल, पौड़ी  गढ़वाल, दक्षिणी नैनीताल, तराई देहरादून, सहारनपुर तथा बिजनौर जिलों में बोली जाती है। गढ़वाली की उपभाषाओं में राठी, श्रीनगरिया आदि प्रमुख हैं। इसमें लोक साहित्य तो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है, साथ ही कुछ साहित्य भी है। गढ़वाल मंडल ने हिंदी साहित्य को पीतांबर दत्त बर्थवाल, वीरेन डंगवाल और मंगलेश डबराल जैसे ख्यातिनाम  साहित्यकार दिए हैं।


    (ख) कुमाऊंनी

    कुमाऊं खंड में बोले जाने के कारण  इस बोली का नाम कुमाऊंनी पड़ा है। उत्तराखंड के उत्तरी सीमा क्षेत्र इसका केंद्र है। यह बोली उत्तराखंड के उत्तरकाशी, नैनीताल, अल्मोड़ा चम्पावत, पिथौरागढ़ आदि जिलों में बोली जाती है। कुमाऊनी में साहित्य तथा लोक साहित्य दोनों ही पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। कुमाऊं ने हिंदी साहित्य को सुमित्रानंदन पंत,मनोहर श्याम जोशी, इलाचंद्र जोशी जैसे बड़े साहित्यकार दिए हैं।


    (18) पूर्वी पहाड़ी( नेपाली)

    यह 'पहाड़ी 'का पूर्वी  रूप है। पहाड़ी बोलियों के प्रदेश के पूर्वी भाग की भाषा होने के कारण इसे  ' पूर्वी पहाड़ी ' भी कहते हैं । नेपाल में बोले जाने के कारण इसका नाम नेपाली है।  नेपाली  को ' खसखुरा ' या 'गुरुखाली ' भी कहते हैं। नेपाल के शासकों की भाषा होने के कारण ही नेपाली पूरे नेपाल की राष्ट्रभाषा है। प्राचीनतम प्रसिद्ध साहित्यकार प्रमनिधि पंत कहे जाते हैं। 


    Written By:

     Dr. Gunjan A. Shah 
     Ph.D. (Hindi)
     Hindi Lecturer (Exp. 20+)


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