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संत काव्य की प्रमुख विशेषताएं | प्रवृत्तियाँ | Sant Kavya


संत काव्य | Sant Kavya

हिंदी साहित्य के भक्ति काल में दो धाराएं प्रवाहित हुई-

१. सगुण साहित्य

२. निर्गुण साहित्य

सगुण और निर्गुण साहित्य सम्बन्धी कुछ विशेष बिंदु

  • सगुण काव्यधारा को दो शाखाओं में विभाजित किया गया राम काव्य धारा तथा कृष्ण काव्य धारा। 
  • निर्गुण काव्य धारा को दो शाखाओं में विभाजित किया गया संत काव्य धारा तथा सूफी काव्य धारा‌। 
  • संत काव्य धारा को ज्ञानमार्गी या ज्ञानाश्रयी शाखा भी कहा जाता है। 
  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निर्गुणधारा के संत काव्य का नाम 'निर्गुण ज्ञानाश्रयी  शाखा' दिया है। 
  • आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इसे 'निर्गुण भक्ति साहित्य' कहते हैं । 
  • रामकुमार वर्मा ने संत काव्य नाम दिया है जो अपेक्षाकृत अधिक संगत है।


संत शब्द का अर्थ

'संत' शब्द संस्कृत की धातु ' सद् ' से बना है और कई प्रकार से प्रयोग हुआ है (सत्य, वास्तविक, ईमानदार, सही)। इसका मूल अर्थ है 'सत्य जानने वाला' या 'जिसने अंतिम सत्य अनुभव कर लिया हो।'

'संत' शब्द से आशय उस व्यक्ति से है, जिसने सत परम तत्व का साक्षात्कार कर लिया हो। साधारण रूप में ईश्वरोन्मुख किसी भी सज्जन को और संकुचित रूप में निर्गुणोपासक भक्त को संत कहते हैं।


परशुराम चतुर्वेदी के मत में -

" संत शब्द उस व्यक्ति की ओर संकेत करता है, जिसने सतरूपी परमतत्व का अनुभव कर लिया हो ।"

इस प्रकार जो सत्य का साक्षात्कार कर चुका हो, वही संत है। हिंदी साहित्य में कबीर, दादूदयाल, रैदास, नानक, और सुंदरदास आदि के काव्य को संत काव्य माना जाता है। संतकाव्य परंपरा १२ वीं सदी से आज तक चलती आई है। लेकिन धीरे-धीरे इसका काव्य पिष्टपेषित होने के कारण महत्वहीन होता गया । मध्ययुग की समाप्ति तक अपनी रूढ़िवादिता के कारण इसकी क्रांतिकारी भावना समाप्त हो गई । कबीर इस काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि हैं।


संत काव्य की प्रमुख विशेषताएं | प्रवृत्तियाँ | Sant Kavya ki Pravritiyan

संत काव्य में अनेक धार्मिक संप्रदायों के तत्वों का समन्वय है, लेकिन संतो ने धर्म अथवा साधना की शास्त्रीय ढंग से परिभाषा नहीं दी। संत साधु पहले थे और कवि बाद में । संत काव्य की सामान्य  विशेषताएं निम्नलिखित हैं-


(१) निर्गुण ईश्वर में विश्वास

संत कवियों ने अपने काव्य में निर्गुण ईश्वर में विश्वास और कुछ सीमा तक सगुण रूप का विरोध किया है। कबीर का कथन है-

" दशरथ सुत तिहुं लोक बखाना ।

  राम नाम का मरम है आना ।  "


संत निर्गुण ब्रह्म में विश्वास करते हैं जो घट -घट में वास करता है।  इनके ईश्वर का न तो कोई रंग है, न रूप है, न जाति है ,न कोई आकर है, न वह जन्म लेता है और न ही वह मर सकता है, वह तो अजर -अमर है , आगोचर है ,निराकार है ,निर्गुण है ,शाश्वत है ।सभी वर्णो एवं जातियों के लिए वह निर्गुण ही उपास्य है।

" निर्गुण राम जपहु रे भाई ?

  अविगत की गति लिखी न जाई ।"


(२)  बहुदेववाद तथा अवतारवाद का विरोध

संतो ने बहुदेववाद तथा अवतारवाद की भावना का खंडन किया है। इसका कारण, शंकर मत का प्रभाव तथा तत्कालीन मुसलमान शासकों का एकेश्वरवादी होना था । हिंदू -मुस्लिम एकता के लिए संतों ने एकेश्वरवाद का संदेश सुनाया ।

कबीर कहते हैं -

"अक्षर पुरुष इक पेड़ है, निरंजन वाकी डार । 

  त्रिदेवा शाखा भये, पात भया संसार। "

वस्तुत: संतो की उपासना का लक्ष्य सगुण और निर्गुण दोनों से परे है।  फिर भी सगुन उपासकों की भांति उन्होंने अपने प्रियतम को राम, कृष्ण ,गोविंद, केशव आदि नामों से पुकारा है।


(३) गुरु का महत्व

संत काव्य के सभी कवियों ने गुरु के महत्व को प्रतिपादित करते हुए उसे ईश्वर  से भी अधिक महत्व दिया है  क्योंकि ईश्वर तक पहुंचाने वाला गुरु ही है।  गुरु ही ज्ञान के द्वारा ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताता है ।

कबीर कहते हैं-

" गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय।

  बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताया ।" 


संत कवियों का विश्वासहै कि राम की कृपा तभी संभव है जब गुरु की कृपा होती है ।कबीर कहते हैं -

" गुरु धोबी सिस का कपड़ा, साबुन

  सिरजनहार।

  सूरति शिला पर धोइए निकसे ज्योति

  अपार ।"

अर्थात् गुरु धोबी के समान है, शिष्य कपड़े के समान है और प्रभु उस साबुन के समान है जिसके प्रयोग से कपड़ा साफ होता है ।इस प्रकार गुरु कृपा के बिना शिष्य में ज्ञान का विकास संभव नहीं  है। 


आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य - प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ | Adikalin Apbhransh Sahitya


आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य | Adikalin Apbhransh Sahitya

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य

अपभ्रंश नाम पहले -पहल बलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है। आदिकाल में हिंदी -साहित्य के समनांतर संस्कृत और अपभ्रंश साहित्य की भी रचना हो रही थी। इनमें से संस्कृत साहित्य का तो सामान्य जनता तथा हिंदी कवियों पर उतना प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ रहा था, किंतु अपभ्रंश साहित्य भाषा की निकटता के कारण हिंदी साहित्य के लिए निरंतर साथ चलनेवाली पृष्ठभूमि का काम कर रहा था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'अपभ्रंश काल' के अंतर्गत अपभ्रंश और आरंभिक हिंदी- दोनों की रचनाएं सम्मिलित कर ली हैं, किंतु नवीन खोजों से यह सिद्ध हो चुका है कि उनमें से कुछ रचनाएं आरंभिक हिंदी -साहित्य के अंतर्गत आती है और अन्य को  अपभ्रंश साहित्य में रखा जाना ही उचित है। अपभ्रंश भाषा और उसके साहित्य का आविर्भाव छठी शती में होता है । छठी से १४ वीं शती तक अपभ्रंश भाषा के साहित्य का युग था ।इसमें ८वीं से १२वीं शती तक अपभ्रंश साहित्य का स्वर्णयुग कहा जा सकता है। सरहपा, स्वयंभू , जोइन्दु, रामसिंह, पुष्पदंत, धनपाल, कनकामर, अब्दुलरहमान, गोरखनाथ, हेमचंद्र, सोमप्रभ, विद्यापति, कण्हपा, मेरुतुंग, लुइपा, शबरपा, कुक्कुरिपा, श्रावकाचार, देवसेन, कृष्णाचार्य धर्मपाद, महीधर, शालीभद्र सूरि, गोपीचंद आदि इस भाषा के प्रमुख कवि हैं। 

अध्ययन की सुविधा के लिए अपभ्रंश साहित्य को साधारणतया छह वर्गों में विभाजित किया जा सकता है -

( 1 )  सिद्ध साहित्य

( 2 )  जैन साहित्य

( 3 )  नाथ साहित्य

( 4 )  लौकिक साहित्य

( 5 )  रासो साहित्य

( 6 )  गद्य रचनाएं


कबीर की भाषा शैली | Kabir Das - Bhasa Shaili



कबीर दास जी की भाषा - शैली | कबीर की भाषा शैली पर प्रकाश / निबंध - कबीर की भाषा पर विभिन्न विद्वानों के मत, कबीर के ग्रंथों में प्रयुक्त भाषा की विशेषताएं / प्रवृतियां, कबीर की शैली के उदाहरण

कबीर दास जी की भाषा शैली पर प्रकाश

अभिव्यक्ति वाणी की प्राण शक्ति का दूसरा नाम है। इसे हम अपनी अनुभूतियों को दूसरे तक पहुंचाने की प्रक्रिया भी कह सकते हैं। भाषा और अभिव्यक्ति का घनिष्ठ संबंध है। कबीर दास जी की भाषा शैली क्या थी? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए एवं  कबीर की भाषा-शैली सही ढंग से जानने के लिए इस लेख को आखिर तक पढ़ेंगे। अतः यहां पर पहले हम कबीर की भाषा पर संक्षेप में विचार करेंगे। कबीर की भाषा के बाद कबीर की शैली पर प्रकाश डालेंगे।


जैन साहित्य के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएं तथा विशेषताएं


जैन साहित्य

हिंदी साहित्य की उत्पत्ति और विकास में जैन धर्म का बहुत योगदान है। जैनों का क्षेत्र पश्चिमी भारत रहा है। पश्चिमी क्षेत्र में जैन साधुओं ने अपने मत का प्रचार हिंदी कविता के माध्यम से किया। इन कवियों की रचनाएं आचार, रास, फागु, चरित आदि विभिन्न शैलियों में मिलती है। आचार -शैली के जैन काव्यों में घटनाओं के स्थान पर उप- देशात्मकता को प्रधानता दी गयी है।

फागु और चरित -काव्य शैली की सामान्यता के लिए प्रसिद्ध हैं। जैन साधुओं ने 'रास' को एक प्रभावशाली रचना - शैली का रूप दिया । जैन मंदिरों में श्रावक लोग रात्रि के समय ताल देकर रास का गान करते थे ।१४वीं शताब्दी तक इस पद्धति का प्रचार रहा। अत: जैन साहित्य का सबसे अधिक लोक- प्रिय रूप 'रास' ग्रंथ बन गये। इन ग्रंथों एवं कवियों का मूल उद्देश्य धर्म तत्व का निरूपण करना है । धर्म प्रचार के साथ इन ग्रंथों में नीति निरूपण भी मिलता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि 'रास' ग्रंथों के प्रमुख कथानक श्रोत 'जैन पुराण ' है। इन रास ग्रंथों में जैन तीर्थकरों के जीवन चरित तथा वैष्णव अवतारों की कथाएं जैन आदर्शों के आवरण में 'रास' नाम से पद्यबद्ध की गयीं । इन ग्रंथों की भाषा 'अपभ्रंश' है।

आदिकालीन साहित्य में जैन साहित्य के ग्रंथ सर्वाधिक संख्या में और सबसे प्रामाणिक रूप में मिलते  हैं। स्वयंभू, पुष्पदंत ,आचार्य हेमचंद्रजी आदि जैन कवियों ने हिंदुओं में प्रचलित लोक कथाओं को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाया और परंपरा से अलग उसकी परिणति अपने मतानुसार दिखाई।


जैन साहित्य के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएं

प्रमुख जैन कवि एवं उनकी रचनाएं निम्नलिखित हैं-

(1) स्वयंभू

हिंदी के जैन कवियों में सर्वप्रथम नाम स्वयम्भू का है। स्वयम्भू का रचनाकाल अनुमानतः आठवीं शताब्दी माना जाता हैं। सर्वप्रथम भयाणी नामक विद्वान ने स्वयम्भू को अपभ्रंश का बाल्मीकि कहा है। 

स्वयम्भू ने निम्नलिखित चार ग्रंथों की रचना की हैं-

(१)   पउमचरिउ

(२)   रिट्ठणेमि चरित

(३ )   पचामचरिउ

(४)   स्वयम्भू छंद

इनमें 'पउमचरिउ' स्वयंभू की कीर्ति का मुख्य आधार है। इसमें राम-कथा को नवीनता प्राप्त है।  कवि ने राम की कथा को जैन धर्म का स्पर्श दिया है । 'पउमचरिउ ' में विलाप और युद्धों का वर्णन बहुत कुशलता से किया गया है। उपेक्षित पात्रों के प्रति भी स्वयम्भू की दृष्टि अधिक गई है। भरत और विभीषण के चरित्रों को नवीन वैभव  प्रदान किया है । कथा के अंत में राम निर्वाण प्राप्त करते हैं और मुनीन्द्र उपदेश देते हैं कि राग से दूर रहकर ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने स्वयम्भू को भारत के आधे दर्जन महा- कवियों में स्थान दिया है ।


आदिकालीन रासो साहित्य के प्रमुख कवि और रचनाएं


आदिकालीन रासो साहित्य

हिंदी साहित्य में रासो काव्य परंपरा का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। रासो साहित्य मूलत: सामंती व्यवस्था, प्रकृति और संस्कार से उपजा हुआ साहित्य है, जिसे 'देश भाषा काव्य' के नाम से भी जाना जाता है। इस साहित्य के रचनाकार हिंदू राजपूत राजाओं के आश्रय में रहने वाले चारण या भाट थे। समाज में उनका स्थान और सम्मान था, क्योंकि उनका जुड़ाव सीधे राजा से होता था।ये चारण या भाट कलापारखी और कला रचना में निपुण होते थे। ये कुशलता से युद्ध करना भी जानते थे और युद्ध शुरू होने पर अपनी सेना की अगुवाई विरुदावली गा - गाकर किया करते थे। ये राजाओं ,आश्रयदाताओं, वीर पुरुषों तथा सैनिकों के वीरोचित युद्ध घटनाओं को केवल बढ़ा चढ़ाकर ही नहीं, उसकी यथार्थपरक स्थितियों एवं संदर्भों को भी बारीकी के साथ चित्रित करते थे। वीरोचित भावनाओं के वर्णन के लिए इन्होंने 'रासक' या 'रासो' छंद का प्रयोग किया था, क्योंकि यह छंद इस भावना को सम्प्रेषित करने के लिए अनुकूल था। इसलिए इनके द्वारा रचित काव्य को 'रासो काव्य 'कहा गया ।


देवनागरी लिपि का उद्भव, विकास और गुण-दोष | Devanagari Lipi


देवनागरी लिपि - उद्भव, विकास एवं गुण-दोष | Devanagari Lipi 

लिपि की परिभाषा

भाषा लेखन के लिए निश्चित चिह्नों की व्यवस्था को लिपि कहते हैं ।

भाषा के दो रूप हैं-

१. मौखिक भाषा

२. लिखित भाषा


भाषा का लिखित रूप ही लिपि है  जो ध्वनियों को अंकित करने के लिए प्रयोग में लाई जाती है। विश्व की सभी भाषाओं की अपनी- अपनी लिपियां हैं। हिंदी, मराठी, नेपाली और संस्कृत की लिपि 'देवनागरी' है। अंग्रेजी, जर्मन, फ्रांसीसी आदि भाषाओं की लिपि 'रोमन 'है । उर्दू और फारसी 'फारसी' लिपि में लिखी जाती है। पंजाबी भाषा की लिपि 'गुरुमुखी'  है।


देवनागरी लिपि का इतिहास, उद्भव एवं विकास

भारत में प्राचीनतम उपलब्ध अभिलेखों में दो लिपियों का प्रयोग मिलता है-

१. खरोष्ठी लिपि

२. ब्राह्मी लिपि


इनमें ब्राह्मी लिपि का क्षेत्र अधिक व्यापक था । देवनागरी लिपि का उद्भव ब्राह्मी लिपि से हुआ है । देवनागरी लिपि के समान ही ब्राह्मी लिपि भी बाईं से दाईं ओर ही लिखी जाती थी । ब्राह्मी के उत्तरोत्तर विकास के फलस्वरुप 'गुप्त लिपि' तथा 'कुटिल लिपि' का विकास हुआ, तदनंतर १० वीं शताब्दी में यह नागरी लिपि के रूप में प्रकट हुई। इसी का नाम देवनागरी है।  भारत में सबसे अधिक प्रचलित लिपि यही है। भारत के संविधान में देवनागरी लिपि का स्थान राजभाषा हिंदी की लिपि के रूप में किया गया है ।


देवनागरी लिपि का सर्वप्रथम प्रयोग गुजरात के नरेश जयभट्ट के एक शिलालेख में मिलता है। ८ वीं शताब्दी में राष्ट्रकुल नरेशों में भी यही लिपि प्रचलित थी और ९ वीं शताब्दी में बडौदा के ध्रुव-

राज ने भीअपने राज्यादेशों में इसी लिपि का प्रयोग किया है।


देवनागरी लिपि का विकास

    

             ‌  ‌  ब्राह्मी लिपि

       -------------!------------------

       ।                                           ।        ‌       

उत्तरी ब्राह्मी (३५०ई. तक)           दक्षिणी ब्राह्मी

       ।

गुप्त लिपि ( ४-५ वीं सदी )

      ।

सिद्धमात्रिक लिपि ( ६वीं सदी )

      ।

कुटिल लिपि

     ।

-------------------------------

    ।                                   ।

नागरी लिपि                    शारदा लिपि

( देवनागरी लिपि)                  ।

                 ------------------------------

                 ।            ।          ।             ।

         गुरुमुखी    कश्मीरी      लहंदा      टाकर


हिंदी साहित्य का इतिहास: काल विभाजन एवं नामकरण | Hindi Sahitya Ka Itihas - Kaal Vibhajan & Namkaran


हिंदी साहित्य का इतिहास | Hindi Sahitya Ka Itihas

सामान्यत: 'इतिहात' शब्द से राजनितिक व सांस्कृतिक इतिहास का ही बोध होता है, किंतु वास्तविकता यह है कि सृष्टि की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसका इतिहास से सम्बंध न हो। अत: साहित्य भी इतिहास से असम्बद्ध नहीं है। साहित्य के इतिहास में हम प्राकृतिक घटनाओं व मानवीय क्रिया-कलापों के स्थान पर साहित्यिक रचनाओं का अध्ययन ऐतिहासिक दृष्टि से करते हैं। वैसे देखा जाए तो साहित्यिक रचनाएं भी मानवीय क्रिया-कलापों से भिन्न नहीं है; अपितु वे विशेष वर्ग के मनुष्यों की विशिष्ट क्रियाओं की सूचक हैं। दूसरे शब्दों में,साहित्यिक रचनाएं  साहित्यकारों की सर्जनात्मक क्रियाओं और प्रवृत्तियों की सूचक होती हैं। अतः उनके इतिहास को समझने के लिए उनके रचयिताओं  तथा उनसे सम्बंधित स्थितियों, परिस्थितियों और परंपराओं को समझना भी आवश्यक है।हिंदी साहित्य के काल विभाजन का लक्ष्य अंततः इतिहास की विभिन्न  परि- स्थितियों के संदर्भ में उसकी घटनाओं एवं प्रवृत्तियों के विकास क्रम को स्पष्ट करना होता है। हिंदी साहित्य के इतिहास को इसलिए विद्वानों ने विभिन्न काल खंडों में विभाजित करके ही अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।


गार्सा द तॉसी

हिंदी साहित्य का इतिहास सर्वप्रथम लिखने का श्रेय एक फ्रेंच विद्वान गार्सा द तॉसी को दिया जाता है। इन्होंने फ्रेंच  भाषा में ' इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐन्दुई ऐन्दुस्तानी '  ग्रंथ लिखा , जिसमें  अंग्रेजी वर्ण क्रमानुसार हिंदी और उर्दू भाषा के अनेक कवियों का परिचय दिया गया है। परंतु उन्होंने काल विभाजन और नामकरण की ओर ध्यान नहीं दिया था।


शिवसिंह सेंगर

तॉसी की परंपरा को आगे बढ़ाने का श्रेय शिवसिंह सेंगर को है। इनका महत्वपूर्ण ग्रंथ ' शिवसिंह सरोज 'है। इसमें लगभग एक सहस्र भाषा - कवियों का जीवन चरित उनकी कविताओं के उदाहरण सहित प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, किंतु काल विभाजन का इसमें कोई संकेत नहीं है।


काल विभाजन एवं नामकरण | Kaal Vibhajan & Namkaran

जॉज ग्रियर्सन का काल विभाजन

हिंदी साहित्य का काल विभाजन करने का सर्वप्रथम प्रयास जॉर्ज ग्रियर्सन ने किया। इन्होंने अपनी पुस्तक 'द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिट्रेचर ऑफ हिंदुस्तान ' में 11 अध्यायों में हिंदी साहित्य का काल विभाजन किया है। साथ ही इन्होंने कवियों और लेखकों की प्रवृत्तियों को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है।


1. चारण काल(७०० ई.से१३००ई.तक)

2.पन्द्रहवीं शती का धार्मिक पुनजागरण

3. जायसी  की प्रेम कविता

4. ब्रज का कृष्ण संप्रदाय (१५००-१६०० ई.)

5. मुगल दरबार

6. तुलसीदास

7. रीतिकाव्य (१५८०-१६९२ ई.)

8. तुलसी के अन्य परवर्ती (१६००-१७०० ई.)

9. अट्ठारहवीं शताब्दी

10.कम्पनी के शासन में हिंदुस्तान (१८००-१८५७ ई.)

11. महारानी विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान एवं विविध


डॉ. जॉर्ज ग्रियर्सन के  विभाजन में असंगतियां, न्यूनता एवं त्रुटियां होते हुए भी प्रथम प्रयास होने के कारण इसका अपना विशेष महत्व है।

मिश्र बंधुओं का काल विभाजन एवं नामकरण मिश्र बंधुओं ने ' मिश्रबंधु- विनोद ' में काल विभाजन का नूतन प्रयास किया है जो ग्रियर्सन के प्रयास से प्रौढ़ एवं अधिक विकसित है। मिश्र बंधु के साहित्य इतिहास को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने बड़ा भारी कवि वृत्त संग्रह कहा है। इनका विभाजन इस प्रकार है-


1.   आरम्भिक काल

(क) पूर्वारम्भिक काल (७०० वि.से १३४३ वि. तक)

(ख) उत्तरारम्भिक काल (१३४४ वि.से १४४४ वि. तक)


2.   माध्यमिक काल

(क) पूर्व माध्यमिक काल (१४४५ वि.से १५६० वि. तक)

(ख) प्रौढ़ माध्यमिक काल (१५६१ वि. से १६८० वि. तक)


3.   अलंकृत काल

(क) पूर्व अलंकृत काल (१६८१ वि.से १७९० वि. तक)

(ख) उत्तर अलंकृत काल (१७९१ वि. से १८८९ वि. तक)


4. परिवर्तन काल (१८९० वि. से १९२५ तक)


5. वर्तमान काल (१९२६ वि. से अब तक)


इतिहास-लेखन की पूर्व परंपरा को आगे बढ़ाने में इसका महत्वपूर्ण योगदान है। 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने स्वयं स्वीकार किया है -

" कवियों के परिचयात्मक विवरण मैंने प्राय: 'मिश्रबंधु- विनोद' से ही लिए है।" परवर्ती इतिहासकारों के लिए भी यह आधार ग्रंथ रहा है।


आचार्य रामचंद्र शुक्ल का काल विभाजन एवं नामकरण

हिंदी -साहित्य इतिहास की परंपरा में सर्वोच्च स्थान आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित 'हिंदी साहित्य का इतिहास'( १९२९ ) को प्राप्त है । जो मूलत: नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित ' हिंदी शब्द सागर ' की भूमिका के रूप में लिखा गया था तथा जिसे आगे  परिवर्द्धित एवं विस्तृत करके स्वतंत्र पुस्तक का रूप दे दिया गया। इसके आरंभ में ही आचार्य शुक्ल ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए उद्- घोषित bकिया है-

" प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य  के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियो की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना है ' साहित्य का इतिहास ' कहलाता है ।जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है।"

उन्होंने युगीन परिस्थितियों के संदर्भ में साहित्यिक प्रवृत्तियों के विकास की बात कही, वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्होंने साहित्य इतिहास को साहित्यालोचना से पृथक रूप में ग्रहण करते हुए विकास- वादी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिचय दिया। उन्होंने हिंदी साहित्य के ९०० वर्षों के इतिहास को  चार कालों में विभक्तकर नया नामकरण दिया, जो इस प्रकार है।


1.  वीरगाथा काल (आदिकाल)

     (वि.सं. १०५० से १३७५ तक )


2. भक्तिकाल  ( पूर्व मध्यकाल )

     ( वि. सं. १३७५ से १७०० तक )


3.  रीतिकाल  ( उत्तर मध्यकाल )

      ( वि. सं. १७०० से १९०० तक )


4.  गद्यकाल ( आधुनिक काल )

       ( वि.सं. १९०० से अब तक )


आचार्य शुक्ल के इतिहास की एक अन्य विशेषता है- पूरे भक्तिकाल को चार भागों या शाखाओं में बांटकर उसे शुद्ध दार्शनिक एवं धार्मिक आधार पर प्रतिष्ठित कर देना । उन्होंने भक्तिकाल के समस्त साहित्य को पहले निर्गुण- धारा और सगुण -धारा में और फिर प्रत्येक को दो- दो शाखाओं- ज्ञानाश्रयी शाखा एवं प्रेमाश्रयी शाखा तथा राम- भक्ति शाखा एवं कृष्णभक्ति शाखा - में विभक्त करके न केवल साहित्यिक आलोचकों के लिए, अपितु दार्शनिक तथा धार्मिक दृष्टि से साहित्यानुसंधान करनेवालों के लिए भी एक अत्यंत सरल एवं सीधा मार्ग तैयार कर दिया।


भक्तिकाल की चार शाखाएं

निर्गुण साहित्य-

(क) ज्ञानमार्गी शाखा

(ख) प्रेममार्गी शाखा

      ‌ ‌    

सगुण साहित्य-

(ग) रामभक्ति शाखा

(घ) कृष्णभक्ति शाखा


आधुनिक काल को शुक्ल जी ने तीन चरणों में विभक्त किया है, जो इस प्रकार है-

1.  प्रथम उत्थान

2.  द्वितीय उत्थान

3.  तृतीय उत्थान


आदिकाल के नामकरण की समस्या | Adikal Ka Namkaran - Hindi Sahitya


आदिकाल का नामकरण | Adikal Ka Namkaran - Hindi Sahitya

हिंदी साहित्य के आदिकाल के नामकरण के विषय में विद्वानों के विभिन्न मत हैं। भाषा की अस्पष्टता एवं प्रवृत्ति की विविधता के कारण आदिकाल के नामकरण की समस्या विवादाग्रस्त है। अब प्रश्न यह उठता है कि आदिकाल को किस नाम से पुकारा जाएं?

जहां तक विभिन्न विद्वानों के मतों का प्रश्न है, वे उसे चारण काल( ग्रियर्सन), प्रारंभिक काल( मिश्र बंधु), वीरगाथा काल( आचार्य रामचंद्र शुक्ल), आदिकाल (डॉ .हजारी प्रसाद द्विवेदी), संधि काल एवं चारण काल( डॉ .रामकुमार वर्मा), वीर काल (विश्वनाथ-प्रसाद मिश्र), बीजवपन काल( महावीर- प्रसाद द्विवेदी), सिद्ध सामंत युग( राहुल सांकृत्यायन ) , वीरगाथा युग (डॉ. श्याम- सुंदरदास) आदि कई नामों से पुकारते रहे हैं।


जार्ज ग्रियर्सन का मत

काल विभाजन करके नामकरण करने वाले प्रथम इतिहासकार डॉ. ग्रियर्सन ही है। उन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल को 'चारण काल 'नाम दिया है। पर इस नाम के पक्ष में  वे कोई ठोस तर्क नहीं दे पाये हैं। इस काल का समय तो वे ६४३ ई . तक पीछे ले गए हैं,  किन्तु उस समय की किसी चारण रचना या प्रवृत्ति  का  उल्लेख उन्होंने  नहीं किया है । वस्तुतः इस प्रकार की रचनाएं १०००ई. तक मिलती ही नहीं। इसलिए जार्ज ग्रियर्सन द्वारा दिया गया नाम उचित नहीं है।


हिंदी भाषा का उद्भव एवं विकास | Hindi Bhasha - Udbhav & Vikas


हिंदी शब्द की उत्पत्ति

'हिंदी' वस्तुतः फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है- हिंदी का या हिंदी से संबंधित। हिंदी शब्द की उत्पत्ति सिंधु शब्द से हुई है। सिंधु का तात्पर्य सिंधु नदी से है। जब ईरानी उत्तर पश्चिम से होते हुए भारत आए तब उन्होंने सिंधु नदी के आसपास रहने वाले लोगों को हिंदू कहा। ईरानी भाषा में 'स' को 'ह' तथा 'ध' को 'द' उच्चारित किया जाता था ।इस, प्रकार यह सिंधु  से हिंदू बना तथा 'हिंदू' से 'हिंद' बना फिर कालांतर में 'हिन्द' से 'हिंदी 'बना जिसका अर्थ होता है ' हिंद का ' - हिंद देश के  निवासी। बाद में यह शब्द  ' हिंदी की भाषा ' के अर्थ में उपयोग होने लगा


हिंदी भाषा: परिचय

जब हम हिंदी भाषा शब्द का व्यवहार करते हैं तब हमारे सामने तीन अर्थ आते हैं-

( १ ) ऐसी भाषा, जिसका उत्तर भारत के लोग सामान्य बोलचाल में इसका प्रयोग करते है।

( २ ) मानक हिंदी,  जो साहित्य और संस्कृति का प्रतीक है।

( ३ ) जो भारत की राजभाषा है और जिसका प्रयोग सरकारी कामकाज के लिए किया जाता है।


यहां हम प्रमुख रूप से हिंदी भाषा की बात कर रहे हैं।


हिंदी भाषा का उद्भव

आज हम जिस भाषा को हिंदी के रूप में जानते है, वह आधुनिक आर्य भाषाओं में से एक है । भारत में उसका प्राचीनतम रूप  संस्कृत है।

संस्कृत का काल मोटे रूप से १५००ई.पू.से ५००ई.पू.तक माना जाता है। इस काल में संस्कृत बोलचाल की भाषा थी। संस्कृत काल के भी दो रूप मिलते  हैं । एक भाषा वैदिक संस्कृत है, जिसमें वैदिक  संहिताओं, ब्राह्मणों , आरण्यकों  तथा प्राचीन उपनिषदों का सृजन हुआ है और दूसरी लौकिक संस्कृत या क्लासिकल संस्कृत है। लौकिक संस्कृत का मूल आधार वैदिक संस्कृत का उत्तरी रूप ही है। 

साहित्य में प्रयुक्त भाषा के रूप में इसका आरंभ ८ वीं सदी ई.पू. से होता है। पाणिनि ने इस भाषा को व्याकरण बद्ध किया। इसमें वाल्मीकि, व्यास, कालिदास , माघ, अश्वघोष, मम्मट, दंडी ,भामह, भवभूति तथा  श्रीहर्ष  आदि महान विभूतियां हैं।संस्कृत भाषा में ही वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत जैसे ग्रंथ रचे गए । इस संस्कृत काल के अंत तक मानक या परिनिष्ठित भाषा तो एक थी, परंतु क्षेत्रीय तीन बोलियां विकसित हो चली थीं,जो इस प्रकार हैं-

१.पश्चिमोत्तरी  

२. मध्यदेशी  

३. पूर्वी


हिंदी की प्रमुख बोलियों का परिचय


हिन्दी की 18 बोलियाँ (उपभाषाएँ) - सामान्य परिचय एवं जानकारी (1) खड़ीबोली (2) ब्रजभाषा (3) हरियाणी (4) बुंदेली (5) कन्नौजी (6) अवधी (8) छत्तीसगढ़ी (9) पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी) (10) पूर्वी राजस्थानी (जयपुरी) (11) उत्तरी राजस्थानी( मेवाती) (12) दक्षिणी राजस्थानी (मालवी) (13) भोजपुरी (14) मगही (16) पश्चिमी पहाड़ी (17) मध्यवर्ती पहाड़ी (गढ़वाली -कुमाऊंनी) (18) पूर्वी पहाड़ी (नेपाली)

हिंदी में कुछ लोगों ने भाषा के लिए 'बोली' नाम का प्रयोग किया है। एक भाषा के अंतर्गत कई बोलियां होती हैं। जैसे हिंदी क्षेत्र में खड़ीबोली,ब्रज, अवधी, बुंदेली आदि बोलियां हैं और एक बोली में कई उपबोलियां होती हैं। जैसे-बुंदेली बोली के अंतर्गत लोधान्ती, राठौरी, तथा पंवारी आदि।


'रामचरितमानस' के संदर्भ में तुलसी के काव्य का प्रकृति-चित्रण

तुलसी के साहित्य में प्रकृति सौंदर्य | रामचरितमानस में पर्यावरणीय सम्पन्नता | तुलसी के रामचरित मानस में प्रकृति चित्रण | तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस में प्रकृति एवं पर्यावरण

#तुलसी के काव्य का प्रकृति-चित्रण


गोस्वामी तुलसीदास मूलत: भक्त कवि थे। अत: प्रकृति को उन्होंने भक्ति के संदर्भ में ही विशेष तौर पर देखा है ,फिर भी प्रबंध रचना की दृष्टि से गोस्वामी तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' में प्रकृति के विविध रूपों का चित्रण किया है। ये प्रकृति चित्रण मोटे तौर पर हमें निम्न रूपों में दिखाई देता हैं-

(१) प्रकृति का उद्दीपन स्वरूप

(२) प्रकृति का उपदेशात्मक रूप

(३) आलंकारिक प्रकृति चित्रण

(४) प्रकृति का आलंबन रूप


( १ ) प्रकृति का उद्दीपन स्वरूप

तुलसीदास ने संयोग और वियोग के निरूपण में प्रकृति को माध्यम के रूप में चुना है । अर्थात् प्रकृति के माध्यम से उन्होंने संयोग और वियोग के चित्र उद्घाटित किये है। उदाहरण के तौर पर जनक वाटिका प्रसंग में राम और सीता के मिलन से संयोगात्मक प्रकृति का स्वरूप अत्यंत अनूठा बन पड़ा है। 

जनक वाटिका का प्रकृति वर्णन करते-करते तुलसी सीता के अप्रतिम सौंदर्य की तुलना करने लगते है तो उनकी दृष्टि में प्रकृति भी फीकी नजर आने लगती है। इसी तरह 'रामचरितमानस' में सीता हरण के प्रसंग में राम का विरह रूप तुलसीदास ने प्रकृति के माध्यम से ही निरूपित किया है। एक ओर जहां राम शक्ति और सौंदर्य के प्रतिरूप है वहां तुलसी ने संवेदना के स्तर पर राम को प्रलाभ करते हुए दिखा दिया है। वे पेड़-पौंधे ,पशु -पक्षी सभी से सीता का पता पूछने लगते हैं-

" हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी ।

  तुम्ह देखी सीता मृगनैनी ।।"


आगे चलकर इसी भाव के विस्तार में तुलसी कहते हैं -

" नारी सहित सब खग मृग बंदा

  मानहुं मोरि करत है निंदा । "


कहने की आवश्यकता नहीं कि तुलसी के काव्य में प्रकृति का उद्दीपन रूप सटीक रूप से चित्रित हुआ है ।प्रकृति को भूमिका बना- कर कवि ने पात्रों की मानसिक दशा का भी वर्णन किया है। राजा दशरथ की मानसिक स्थिति का वर्णन करते हुए तुलसीदास कहते हैं-

" पीपर पात सरिस मन डोला ।"


अर्थात् राजा दशरथ का मन पीपल के पत्ते की तरह कांप उठा ।पीपल का पत्ता हवा में जिस तरह कांपता  है वैसे ही राजा दशरथ का मन भी कैकयी के शब्द प्रहारों से कैसे कांप उठता  है इसका यथार्थ वर्णन कवि ने किया है‌। 

प्रकृति को कवि ने कहीं-कहीं सांकेतिक रूप भी प्रदान किया है। खासकर तुलसीदास ने वर्षाऋतु के वर्णन में अपनी विशेष रुचि प्रदर्शित की है। जो वर्षाऋतु संयोगावस्था में आनंद और उल्लास पैदा करती है वहीं वियोगावस्था में हृदय में  कसक पैदा करती है। सीता के वियोग में गरजते हुए बादलों को देखकर राम का मन कसक उठता है-

" घन घमण्ड नभ गरजत घोरा,

   प्रियाहीन डरपत मन मोरा ।"


सांकेतिक भाव यह है कि घन रूपी घमंड  वाले बादल आकाश में गरज रहे हैं, ऐसी स्थिति में अकेली सीता पर क्या गुजर रही होगी यह सोचकर राम का मन भयभीत हो उठता है।

तुलसीदास ने राम और सीता के वियोग निरूपण में प्रकृति का भरपूर प्रयोग किया है प्रकृति के बड़े ही संवेदना पूर्ण चित्र प्रस्तुत किए हैं। इतना होने पर भी हमें यह तो मानना ही पड़ेगा कि प्रकृति का उद्दीपन स्वरूप जो तुलसी की कलम से निरूपित हुआ है वह परंपरागत है । उसमें प्राय: मौलिकता का अभाव है लेकिन इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कवि ने कहीं भी अतिश्योक्तिपूर्ण या भड़कीले चित्रों का अंकन नहीं किया है। कवि ने सीधी -सच्ची बातों को प्रकृति के सीधे- सादे चित्रों के माध्यम से व्यक्त कर दिया है ।


तुलसीदास की भक्ति भावना | Tulsi Ki Bhakti Bhavna

आइए तुलसी की भक्ति-भावना पर प्रकाश डालते हैं-

भक्ति आंदोलन का युग

तुलसी का युग भक्ति-आंदोलनों का युग था। शताब्दियों पूर्व भक्ति का जो प्रवाह दक्षिण भारत से चल रहा था वह धीरे-धीरे संपूर्ण भारत में फैल गया। उसके दो अन्य- तम् प्रचारक- रामानन्द और वल्लभाचार्य हुए। तुलसी के समय में सारा देश  विभिन्न प्रकार की भक्तिधाराओं में डूबा हुआ था। असंख्य मंदिर, मठ, अखाड़े आदि उनके केंद्र थे । काशी से राम-भक्ति का और वृंदावन से कृष्ण-भक्ति का प्रसार हुआ, जिससे संपूर्ण उत्तर भारत आंदोलित हो गया। इस आंदोलन को लोगव्यापी बनाने में भक्त कवियों  ने विशेष महत्वपूर्ण योगदान दिया।

#Tulsi Ki Bhakti Bhavna

सृजनीय के स्वरूप, भक्ति साधना आदि की दृष्टि से भक्ति धारा की दो धाराएं थीं -

निर्गुण भक्ति धारा और सगुण भक्ति धारा। एक में निर्गुण निराकार ईश्वर की भक्ति पर बल दिया गया और दूसरी में सगुण साकार भगवान की भक्ति पर।


रामानंद द्वारा प्रवर्तित राम भक्ति धारा के दो रूप थे- निर्गुण रामभक्ति और सगुन राम भक्ति। रामानंद के शिष्य कबीर ने निर्गुण भक्ति का प्रचार किया। उन निर्गुण संतो ने वर्ण- धर्म, वेद शास्त्र , अवतारवाद आदि का का खण्डन किया।


आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं-

"लोक- मर्यादा का उल्लंघन, समाज की व्यवस्था का तिरस्कार, अनाधिकार चर्चा, भक्ति और साधुता का मिथ्या दंभ, मूर्खता छिपाने के लिए वेद शास्त्र की निंदा, ये सब बातें ऐसी थीं जिनसे गोस्वामीजी की अंत- रात्मा बहुत व्यथित हुई ।"


निर्गुण- निराकार राम से जनता का कल्याण नहीं हो सकता था। अतः तुलसी ने भक्तों की पुकार पर अवतीर्ण होकर अधम असुरों का संहार करनेवाले लोक रक्षक राम की भक्ति का उपस्थापन किया । मर्यादापुरुषो- त्तम और लोक धर्म -संस्थापक राम का रंजनकारी चित्र अंकित करके सामाजिक उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त किया । सगुण राम- भक्ति की भी दो विधाएं थीं- माधुर्य विशिष्ट और मर्यादा विशिष्ट। कांत-कांता -भाव की माधुर्य विशिष्ट रसिक -भक्ति श्रृंगारिकता से ओतप्रोत थी । वह तुलसी की मनोवृत्ति  के प्रतिकूल थी । वह समाज का उन्नयन नहीं कर सकती थी।इसलिए उन्होंने सेव्य- सेवक भाव की मर्यादावादी भक्ति का  प्रतिपादन किया ।


गोस्वामी तुलसीदास की भक्ति पद्धति

भक्त कवि तुलसीदास भक्ति साहित्य के क्षेत्र में कलानिधि चंद्रमावत रामामृत की धारा को प्रवाहित कर गए, जिसको पीकर जनता आज तक आभारी है और युग-युग तक रहेगी। उन्होंने भक्त-भ्रमरों के लिये भाव-कलिकाओं द्वारा भक्ति -पराग को नि:सृत किया, जिसका पानकर जनता आज तक अपने सौभाग्य क्षणों की प्रशंसा करती है। उन्होंने अपने साहित्य के मंथन द्वारा 'रामचरित चिंतामणि ' का पुनरुद्धार किया और रामत्व का मंत्र दिया ।


'विनयपत्रिका' का काव्य सौष्ठव | 'विनयपत्रिका' के भावपक्ष तथा कलापक्ष

# 'विनयपत्रिका' के भावपक्ष तथा कलापक्ष

'विनयपत्रिका' भक्ति रस का असाधारण काव्य है। दार्शनिक और साहित्यिक दोनों दृष्टियों से यह तुलसी की बहुत ही प्रौढ़ एवं उत्कृष्ट कृति है। 'विनय काव्य' की दृष्टि से यह अप्रतिम है। अतः इसमें उनके काव्य वैभव का ”चरमोत्कर्ष" उपलब्ध होना सहज स्वाभाविक प्रतीत होता है। यह कृति जहां भाव पक्ष की दृष्टि से अत्यधिक रमणीय है वहीं इसका कला पक्ष भी पर्याप्त परिष्कृत और मनोहारी है। अब हम इसके भाव- सौंदर्य पर विचार करेंगे।


'विनयपत्रिका' के भावपक्ष तथा कलापक्ष

'विनयपत्रिका' का भाव पक्ष

'रामचरितमानस' से लेकर 'बरवैरामायण' तक सभी कृतियों की भावाभिव्यक्ति का प्रभाव 'विनयपत्रिका' के भावों पर कहीं प्रत्यक्ष रूप में और कहीं अप्रत्यक्ष रूप में पाया जाता हैं।


( १ ) रस-भाव व्यंजना

'विनयपत्रिका 'का मुख्य तथा प्रधान रस भक्ति रस है। कुछ आलोचक की धारणा इससे भिन्न है ।


पंडित चंद्रबली पांडे का कथन है कि-

"वह वास्तव में शांत रस का ही ग्रंथ है, उसमें सभी रस जहां-तहां दिखाई दे जाते हैं, किंतु जो भाव आदि से अंत तक बना रहता है वह निर्वेद ही है, विनय में निर्वेद का राज्य है।"

कुछ आलोचकों ने 'विनयपत्रिका' में भक्ति रस का परिपाक मानते हुए भी उसके कतिपय भक्तिरस -व्यंजक पदों को शांत रस के उदाहरण- रूप में उद्धृत किया है, 

जैसे-

"मन! पछितेहै अवसर बीते।

  दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु,

  करम वचन अरु ही ते ।"

यहां भी ' निर्वेद ' भक्ति का पोषक है। अत: पूरे पद का व्यंग्य शांत नहीं, भक्ति रस है।


'विनयपत्रिका' में एकाध स्थलों पर शांत रस की अभिव्यक्ति मानी जा सकती है-


" केसव ! कहि न जाइ का कहिये

  देखत तव रचना विचित्र हरि!

  समुझि मनहिं मन रहिये ।।

+         +        +         +          +

  कोउ कह सत्य, झूठ कह कोउ,

  जुगल प्रबल कोउ मानै ।

  तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम,

  सो आपन पहिचानौ ।।"


यहां भी यह तर्क किया जा सकता है कि तुलसी का प्रतिपाद्य भक्ति है ,वह विवेक संयुत है ।


एकाध पदों को शांतरसात्मक मान लेने से 'विनयपत्रिका' के भक्त्यात्मक (भक्तिपरक)  स्वरूप में कुछ अंतर नहीं पड़ता। यह तो विनय की ' पत्रिका ' है, आद्योपांत भक्ति से ओतप्रोत है। आश्रय स्वयं तुलसीदास हैं। आरंभिक पदों में गणेश ,सूर्य ,शिव आदि का आलंबन रूप में चित्रण किया गया है किंतु उनसे भी रामभक्ति की ही याचना की गयी है ।वे साधन है। ' विनयपत्रिका' के आलंबन राम ही हैं। आलम्बन राम के सौंदर्य अंकन को 'विनयपत्रिका' के अनुपयुक्त समझकर तुलसी ने उनके दीन- उद्धारक, करुणामय, शोकसंतापहारी ,पापनाशक, शरणागतपालक और भक्तवत्सल रूप पर ही विशेष ध्यान दिया है-


" दीन उद्घारण रघुवर्य या करुणा- भवन,

   शमन- संताप , पापोघहारी ।"


" अखिल -संसार- उपकार- कारण,

    सदयहृदय, तपनिरत, प्रणतानुकूल ।"


जहां राम का रूप चित्रण किया गया है वहां भक्ति की दृष्टि से ही-


" श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवमय

   दारुणम् ।

   नवकंज -लोचन, कंज-मुख, कर-कंज,    

   पद- कंजारुणं ।।"


यह पद 'विनयपत्रिका' के कितने ही पाठकों को आनंदविभोर कर देता है ।


विनय के पदों में भक्ति रस के उपचायक  संचारी भावों की व्यंजना अत्यंत हृदय स्पर्शी है । 'विनयपत्रिका' के भक्तिरस का प्राण- तत्व -दैन्य निवेदन है । दैन्य भाव के  कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं-


  " तू दयालु, दीन हौं, तू दानि , हौं भिखारी।

   हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप पुंज हारी ।।"


  "ऐसो को उदार जग माहीं।

  बिनु सेवा जो द्रवै दीनपर राम सरिस कोउ

  नाहीं।।"


दैन्य- निरूपक पदों में कवि ने अपने निर- हंकार हृदय को निश्चल भाव से खोलकर रख दिया है । उसकी हार्दिक अभिव्यंजना में सहृदय मात्र के चित्र का प्रतिबिंब झलकता है ।


गीतिकाव्य के तत्वों के आधार पर 'विनय पत्रिका' का मूल्यांकन

गीतिकाव्य क्या है? | गीतिकाव्य की परिभाषा | गीतिकाव्य के तत्व | विनय पत्रिका का तात्विक (विश्लेषण & मूल्यांकन) | Gitikavya | Vinay Patrika | Gitikavya Ke Adhar Par Vinay Patrika Ka Tatvik Mulyankan

# 'विनय पत्रिका' का मूल्यांकन

हिंदी में 'गीत' या 'प्रगीत' शब्द का व्यवहार अंग्रेजी के lyric के अनुवाद के रूप में प्रचलित है।

हडसन के अनुसार-

"लिरिक मूलत: वाद्ययंत्र पर गायी जाने वाली कविता है।" 

महादेवी वर्मा ने 'गीत 'को परिभाषित करते हुए लिखा है-

"सुख - दु:ख की भावावेशमयी अवस्था का विशेष गिने-चुने शब्दों में स्वर- साधना के उपयुक्त चित्रण कर देना ही गीत है।"

गीत यदि दूसरे का इतिहास न कहकर वैयक्तिक सुख-दु:ख ध्वनित कर सके, तो उसकी मार्मिकता विस्मय की वस्तु बन जाती है, इसमें संदेह नहीं।"

'विनयपत्रिका' तुलसी की एक श्रेष्ठ, भाव - पूर्ण, मुक्तक काव्य कृति है। इस काव्य में उन्होंने 'पद' की शैली का प्रयोग किया है।

मध्ययुगीन हिंदी साहित्य में इस शैली का प्रयोग कई कवियों ने किया है‌। अष्टछाप के सभी कवियों की रचनाएं पद शैली में ही मिलती है। सूरदास के काव्य में इसका चरमोत्कर्ष दिखाई देता है। जैसे-


तुलसीदास की काव्य कला | Tulsi Ki Kavya Kala

गोस्वामी तुलसीदास भक्ति के क्षेत्र में जितने महान थे उतने ही कविता के क्षेत्र में भी ।

यद्यपि तुलसी के काव्य-सृजन का प्रधान उद्देश्य भक्ति-प्रतिपादन एवं ' रामचरित-मानस' का गायन है, जिसमें उनकी सफलता विस्मयकारी है, तथापि कला-पक्ष की दृष्टि से भी, वे सफलता प्राप्त करने में सक्षम सिद्ध हुए हैं । अनुभूति पक्ष की दृष्टि से संसार साहित्य का कोई महाकवि तुलसीदास से आगे नहीं है, किंतु तुलसी का अभिव्यक्ति-पक्ष ( कलापक्ष ) भी विलक्षण है जो व्यास, शेक्सपीयर से भी अधिक शब्द-संपन्न एवं अधिक अलंकृत है, जिसमें कविता की अधिकतम् विधाओं के दर्शन होते हैं। अवधी, संस्कृतनिष्ठ अवधी, ब्रज भाषा, संस्कृतनिष्ठ ब्रजभाषा, संस्कृत और भोजपुरी तक तुलसी का अभिव्यक्ति -लोकअतुलनीय है । 

#Tulsi Ki Kavya Kala

तुलसी का अलंकार सामर्थ्य इतना सहज और भाव संपन्न है कि अलंकारवादी- चमत्कारवादी तक उनके पीछे पड़ जाते हैं। सूर केवल ब्रजभाषा का प्रयोग करते हैं, जायसी केवल अवधी का, जबकि तुलसी का दोनों पर समान अधिकार है। तुलसी कला के पीछे नहीं दौड़े, कला उनके  पीछे दौड़ी है।


' हरिऔध ' के शब्दों में-

  " कविता करके तुलसी न लसे

    कविता लसी या तुलसी की कला ।"


( १ ) तुलसी की अतुलनीय भाषा - सामर्थ्य

संसार- साहित्य में तुलसी के भाषा- सामर्थ्य की कोई तुलना नहीं, अवधी एवं संस्कृत निष्ठ अवधी, ब्रजभाषा एवं संस्कृत निष्ठ ब्रजभाषा, संस्कृत एवं भोजपुरी का प्रसार अतुलनीय है। विश्व साहित्य के सीमांत शेक्सपीयर तक ने १३ हजार शब्दों का प्रयोग किया है, जो विलक्षण है, किंतु तुलसी- दास ने १६ हजार शब्दों का प्रयोग किया है। रसानुरूप भाषा के विलक्षण प्रयोग की दृष्टि से तुलसी की समता वाल्मीकि, व्यास , कालिदास , होमर, शेक्सपीयर जैसे महाकवि तक नहीं कर सकते ।


अवधी - ब्रजभाषा

तुलसीदास का शब्द- शिल्प अनूठा है। उन्होंने अपने ग्रंथों में सामान्यतः दो भाषाओं का प्रयोग किया है- अवधी और ब्रजभाषा। दोनों पर उनका समान अधिकार है। 'रामचरितमानस ' अवधी की प्रतिनिधि रचना है, और 'विनयपत्रिका' तथा 'कवितावली' ब्रजभाषा की।

ब्रजभाषा में 'हौं' शब्द 'मैं ' के अर्थ में प्रयुक्त होता है । 'कवितावली' में भी अनेक स्थानों पर ' हौं ' शब्द 'मैं' के अर्थ में आया है। 

जैसे-

" बरु मारिए मोहिं, बिना पग धोए,

  हौं नाथ न नाव चढाइहौं जू । "

' रामचरितमानस 'में भी ' सांवरो',  'को', 'हौं'  ,'बेरो' आदि ब्रजी के प्रयोग मिल जाते हैं।


ब्रजभाषा में मेरो, तेरो , हमारो ,तिहारो का प्रयोग भी  पारस्परिक व्यवहार के लिए बहुत होता है।इसका प्रयोग भी 'कवितावली' में हुआ है।

 जैसे-

"जनक को सिया को  हमारो तेरो तुलसी को"।       

ब्रजभाषा की कृतियों में ' लुटैया ', ' मंह ', ' मैं ', ' तोर मोर ', 'नाऊं गाऊं' आदि अवधी प्रयोगों  की बहुलता पाई जाती है।


'कवितावली' में भी अवधी का स्वरूप  विद्यमान है। अवधी के अनेक शब्दों का प्रयोग 'कवितावली' में मिलता है। अवधी में " में " के लिए मांह, माहीं, मंह आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है। 

एक उदाहरण देखिए-

" दूलह श्री रघुनाथ बने, 

   दूलही सिय सुंदर मंदिर मांही ।"


कुछ और उदाहरण देखिए-

घालि  ( घलुआ ), घारि  ( समूह- सेना ), से ( वे ), अकनि ( सुनकर ), अछत( रहते), पंवारो ( कीर्ति ) आदि ।


तुलसीदास का कृतित्व | Tulsidas Ki Kritiyan

गोस्वामी तुलसीदास जी के कृतित्व की विस्तृत व्याख्या | तुलसी की कृतियों का संक्षिप्त परिचय | Tulsidas Ka Krititva | Tulsidas Ki Kritiyan 

तुलसी का कृतित्व अपने आप में पर्याप्त महत्वपूर्ण रहा है। युग और साहित्य के प्रति उनकी देन सदा याद रखने योग्य है। उनके कृतित्व का मूल्य विशेष रूप से धार्मिक, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में उल्लेख- नीय है।

#Tulsidas Ki Kritiyan


तुलसीदास का महत्व बताते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं-

"तुलसीदास का महत्व बताने के लिए विद्वानों ने अनेक प्रकार की तुलनात्मक उक्तियों का सहारा लिया है। नाभादास ने उन्हें 'कलिकाल का वाल्मीकि' कहा था, स्मिथ ने उन्हें मुगल काल का सबसे बड़ा व्यक्ति माना था, जॉर्ज ग्रियर्सन ने इन्हें बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोकनायक कहा था और यह तो बहुत लोगों ने बहुत बार कहा है कि उनकी रामायण भारत की बाइबिल है‌। इन सारी उक्तियों का तात्पर्य यही है कि तुलसीदास असाधारण शक्ति - शाली कवि, लोकनायक और महात्मा थे।"


तुलसीदास का कृतित्व के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के मत

तुलसीदास की रचनाओं के संबंध में विभिन्न विद्वानों के विविध मत हैं।

( १ ) शिवसिंह सेंगर ने तुलसी के ग्रंथों का उल्लेख करते हुए १८ ग्रंथों के नाम गिनाये हैं।

( २ ) जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपने शोध प्रबंध  "Notes on Tulsidas" में 21 ग्रंथों का उल्लेख किया है, लेकिन बाद में उन्होंने ही अपने "एनसायक्लोफीलिया रीलिजन ऑफ ऐयिक्स" में तुलसी ने 12 ग्रंथों की सूची दी है जिसे दो भागों में विभक्त किया गया हैं-


कवितावली का काव्य सौष्ठव | Kavitavali Ke Kavya Saushthav Ki Vivechna

कवितावली के काव्य सौष्ठव पर प्रकाश डालिए | तुलसीदास जी के काव्य सौष्ठव की विवेचना कीजिए | Kavitavali Ke Kavya Saushthav Par Prakash | vivechna

#Kavitavali Ke Kavya Saushthav Ki Vivechna

'कवितावली' की कवित्व गरिमा निर्विवाद है। उसमें रस, ध्वनि,गुण- वृत्ति ,अलंकार- विधान ,भाषा ,छंद और अन्तर्वृत्ति निरूपण की सर्वतोमुखी रमणीयता है। औचित्य का भी प्राय: सर्वत्र निर्वाह हुआ है। मानव के सहज भावों और भक्ति दर्शन के उन्नत विचारों की शक्तिमयी भाषा में प्रभावशाली व्यंजना की गयी है। भाव और कला दोनों ही दृष्टियों से महात्मा तुलसीदास जी की कवितावली उत्कृष्ट कोटि की रचना है । यहां हम 'कवितावली' के भाव तथा कला दोनों ही पक्षों का विशद्ता से निरूपण करेंगे ।


भाव पक्ष

'कवितावली' के भाव पक्ष की समालोचना करते समय सबसे पहले हम उसकी रस योजना पर विचार करेंगे ।


( १ ) रस योजना

रसिकशिरोमणि  गोस्वामी तुलसीदास ने नव रसों की मंदाकिनी अपने काव्य में प्रवाहित की है ।तुलसी की रस-व्यंजना और भाव- व्यंजना 'कवितावली 'में सुंदर बन पड़ी है। यथा स्थान पर सभी रसों और अधिकांश भावों का दिग्दर्शन 'कवितावली' में मिलेगा। यह कथन अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं है कि  तुलसी को रस -सिद्ध कवि सिद्ध करने के लिए 'कवितावली 'ही अपने आप में पूर्ण है। कवितावली में शास्त्र- प्रसिद्ध सभी भावों का समावेश हुआ है। ये भाव हैं - रति,हास, शोक, क्रोध ,उत्साह, भय ,जुगुप्सा, विस्मय तथा निर्वेद आदि । इनमें सभी भाव अपना चरम उत्कर्ष साध सके हैं। परिणाम स्वरूप 'कवितावली' में श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक,बीभत्स, अद्भुत तथा शांत आदि सभी रसों के दर्शन होते हैं। 'वीर रस' 'कवितावली ' का अंगी रस ( प्रधान ) है।


( १ ) वात्सल्य रस

'कवितावली ' के बालकांड के प्रारंभिक पदों में इस रस की अभिव्यक्ति तुलसी ने की है। 'कवितावली 'का आरंभ वात्सल्य से परिपूर्ण है। एक उदाहरण देखिए-

"अवधेस के द्वारे सकारे गई,

  सूत गोद कै भूपति लै निकसे ।

   अवलोकि हौं  सोच-विमोचन को ठगि सी

   रही, जे न ठगे धिक से।।

   'तुलसी 'मनरंजन रंजित अंजन ,

    नैन सुखंजन जातक से ।

    सजनी ससि में समसील उभै,

    नवनील  सरोरुह से बिकसे ।।'


( २ ) श्रृंगार रस

'कवितावली' में इस रस का चित्रण 'बालकांड 'और 'अयोध्याकांड' में हुआ है। 'बालकांड 'में तुलसी ने श्रृंगार रस का बड़ा ही सौम्य और संयमित वर्णन किया है। विवाह के समय लता मंडप में सीता जी राम को देखने के लिए उत्सुक हैं,लेकिन वे बगल से ताक-झांक नहीं कर सकतीं। तुलसी ने सौम्य  श्रृंगार को पवित्र रखने के लिए सीता जी से राम के रूप का दर्शन कंकण के नंग में करा दिया है-

"दूलह श्री रघुनाथ बने,

         दूलही  सिय सुंदर मंदिर माहीं ।

गावतिं गीत सबै मिलि सुंदरी,

        बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं।

राम को रूप निहारति जानकी,

        कंकन  के नग की परछाहीं।

यातैं सबै सुधि  भूलि गई,

        कर टेकि  रही पल टारति नाहीं।"


रस के चारों अंग इसमें स्पष्ट लक्षित हैं। श्रृंगार का इतना मर्यादित वर्णन हिंदी में कम ही मिलेगा। मर्यादा की दृष्टि से देखा जाए तो यह पद अपने आप में अनूठा है। श्रृंगार का ऐसा स्वच्छ और साफ उदाहरण अन्यत्र कम ही मिल पाएगा ।

'अयोध्याकांड 'में भी वन- गमन के प्रसंग में श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति हुई है।


'विनयपत्रिका' के आधार पर तुलसी की भक्ति भावना का वर्णन

#'विनयपत्रिका' के आधार पर तुलसी की भक्ति भावना का वर्णन

आइए 'विनयपत्रिका' के आधार पर तुलसी की भक्ति भावना पर प्रकाश डालते हैं -

उपासना का एक रुप भक्ति है जिसका अर्थ होता है- भगवान के पास बैठना अथवा भगवान का भजन करना। इसके लिए नारद भक्ति सूत्र में कहा गया हैं कि-


" परमात्मा में परम प्रेम करना ही भक्ति है।"


शांडिल्य भक्तिसूत्र में भी भक्ति की परिभाषा इसी प्रकार की गई है-


"ईश्वर में परमानुरक्ति ही भक्ति है ।"


भक्ति का सबसे पहला रूप हमें वेदों में प्राप्त होता है । अथर्ववेद में इसकी महिमा का ज्ञान विस्तारपूर्वक मिलता है। उपनिषदों जहां ब्रह्म, जीव और जगत पर विस्तार- पूर्वक विचार किया गया है वहां उपासना पद्धति पर भी विस्तार से चर्चा की गई है।


' गीता ' में यद्यपि भक्ति, ज्ञान, योग और कर्म का समन्वय मिलता है फिर भी भक्ति को सर्वाधिक प्रधानता दी गई है।


' गीता 'में कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि-


" सर्वधर्माणि परितज्यम् माम्एकम् शरणं ब्रज:।"


अर्थात् हे अर्जुन अन्य सभी मार्गों को छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सभी पापों से मुक्ति दिला दूंगा। 

'गीता' के बाद उपास्य के स्वरूप की दृष्टि से भक्ति के दो भेद मिलते हैं-

( १ ) निर्गुण भक्ति

( २ ) सगुण भक्ति


भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि निर्गुण की अपेक्षा सगुण भक्ति सरल और सुग्राह्य है। वे कहते हैं कि  इसीलिए लोग मेरी मानवतार के रूप की उपासना करते हैं । यद्यपि में ब्रह्म हूं। 'गीता' में भक्तों की चार कोटियां बताई गई हैं। जिनमें ज्ञानी को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। इसमें यह भी कहा गया है कि भक्ति के क्षेत्र में ऊंच-नीच,  राजा- रंक,ज्ञानी-अज्ञानी आदि का कोई भेद होता ही नहीं। श्रीकृष्ण तो यहां तक कहते हैं कि दुराचारी से दुरा- चारी भी अगर मन लगाकर मेरी भक्ति करता है तो साधु बनने का अधिकारी है‌।


पौराणिक युग में हम देखते हैं कि विष्णु, शिव ,शक्ति, सूर्य और गणपति को विशेष महत्व प्राप्त हुआ और ये पंचदेव कहे गये। इनमें भी विष्णु, शिव और शक्ति की उपा- सना ज्यादातर हुई‌। 'देवीभागवत् 'में जहां शक्ति की उपासना पर बल दिया गया है वहां ' श्रीमद्भागवत ' में भगवान विष्णु की उपासना पर बल दिया गया है। ' भागवत् ' में नवधाभक्ति का उल्लेख मिलता हैं -


" श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्

  अर्चनं वंदनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ।।"


इस नवधा भक्ति की ओर गोस्वामी तुलसी- दास ने भी 'रामचरितमानस' में जगह-जगह पर संकेत किया हैं- शबरी प्रसंग में इसी नवधाभक्ति की बात तुलसी ने कहीं है । इस नवधाभक्ति के अंतर्गत तुलसी की भक्ति का प्रधान रूप ' दास्य भक्ति' है ।


तुलसी की भक्ति 'सेव्य- सेवक' भाव की है जिसका मूल आधार प्रेमरूपाभक्ति है । गोस्वामी तुलसीदास ने स्पष्ट कहा है कि-


" सेवक सेव्य भाव बिनु ,

  भव न तरिय उरगारि । "


'विनयपत्रिका 'भक्तों का कण्ठहार है ।इसमें तुलसी की भक्ति -भावना का व्यापक रूप में उल्लेख हुआ हैं। उन्होंने इसमें अपना हृदय खोलकर रख दिया है तथा भक्ति की पूर्ण पद्धति का अनुसरण करते हुए राम से अपने उद्धार की प्रार्थना की है ।यही कारण है कि यह ग्रंथ भक्तों के हृदय का सर्वस्व ( कंठहार )बन गया है । प्रारंभ से अंत तक हम उसमें तुलसी के भक्त ह्रदय की तन्मयता के दर्शन कर सकते है।


भक्ति के विभिन्न भावों का जिस सच्चाई और स्वाभाविकता के साथ इसके पदों में वर्णन मिलता है वह अनूठा है। कुल मिलाकर यह भक्ति रस का काव्य है, शांत रस का नहीं ।


अब हम 'विनयपत्रिका' के आधार पर तुलसी की भक्ति की विशेषताओं पर विचार करेंगे। 'रामचरितमानस 'में तुलसीदास ने लिखा है-

" श्रुति सम्मत हरि भक्ति पथ संयुत विरति विवेक । "


( १ )  विरति

तुलसीदास ने विरति भाव के लिए मन पर भारी बल दिया है। तुलसी बार-बार मन को श्री राम के चरणों में सदा मग्न रहने की प्रेरणा देते हैं लेकिन मन तो बड़ा चंचल है। जैसे 'गीता 'में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से बार-बार यह कहा हैं-

" अर्जुन अपने मन को बसमें करो ।"


ठीक इसी प्रकार तुलसीदास मन को सांसारिकता से विरक्त होने की प्रेरणा देते है। जब तक मन इस सांसारिकता  से अलग नहीं हो जाता तब तक भक्ति संभव नहीं है। तुलसी ने 'विनयपत्रिका' में कहा हैं -


" जौ निज मन परि हरै बिकारा

  तौ कत द्वैत -जनित संसृति-दु:ख संशय,

  सोक अपारा ।"


काव्य की दृष्टि से रामचरितमानस | महाकाव्य | लक्षण एवं समीक्षा


'साहित्य दर्पणकार' आचार्य विश्वनाथ ने 'सर्गबद्धो महाकाव्य ' कहकर महाकाव्य अथवा प्रबंध काव्य के लक्षण इस प्रकार बताये हैं-


( १ ) प्रबंध महाकाव्य सर्गबद्ध होना चाहिए,सर्ग कम-से-कम आठ हों ।


( २ ) महाकाव्य का नायक धीरोदात्त, कुलीन ,क्षत्रिय अथवा देवता होना चाहिए। एक वंश के अनेक राजा भी नायक हो सकते हैं।


( ३ ) इसमें श्रृंगार, वीर और शांत- तीनों रसों में से कोई एक रस अंगीरस के रूप में होना चाहिए तथा अन्य रस उसको पुष्ट करने में सहायक हों ।


( ४ ) इसमें सभी नाट्य संधियां उपलब्ध हों।


( ५ ) कथानक ऐतिहासिक अथवा सज्जना- श्रित होना चाहिए ।


( ६ )  प्रारंभ में किसी के प्रति आशीर्वचन हो, इसका आरंभ मंगलाचरण से होना चाहिए ।


( ७ )  प्रत्येक सर्ग में  एक छंद का निर्वाह हो तथा अंत में छंद परिवर्तन होना चाहिए। प्रत्येक सर्ग  के अंत में अगले सर्ग के विषय की ओर संकेत होना चाहिए ।


( ८ ) महाकाव्य द्वारा अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष में से किसी एक फल की प्राप्ति होने चाहिए।


( ९ ) महाकाव्य का नामकरण कवि, कथा अथवा प्रमुख पात्र पर होना चाहिए। साथ ही प्रत्येक सर्ग का नामकरण उसमें वर्णित घटनाओं के आधार पर होना चाहिए।


( १० ) महाकाव्य में प्रकृति की मनोरम छटा- संध्या, प्रात:, मध्यान्ह, सूर्य, चंद्र , रात्रि प्रभात, पर्वत, सागर, सरिता, मृगया, युद्ध, आक्रमण, विवाह आदि का वर्णन होना चाहिए। इसके अतिरिक्त यज्ञादि का प्रसंगानुकूल वर्णन होना चाहिए ।


महाकाव्य के उपर्युक्त लक्षणों के आधार पर अब हम 'रामचरितमानस' के प्रबंध तत्व की समीक्षा करेंगे।


( १ ) सप्तसोपान

तुलसी ने 'रामचरितमानस ' की कल्पना मानसरोवर के रूप में की है ।एक सरोवर की सात सीढ़ियों के समान सात कांडो को सोपान की संज्ञा दी गई है ।तुलसी ने दो स्थलों पर ( उपक्रम और उपसंहार में )

सप्तसोपान का सांकेतिक स्पष्टीकरण किया है । 'मानस ' के ये   सोपान वस्तुत: भक्ति के सोपान हैं। ये सोपान रामभक्ति के पंथ है।


( २ )  'रामचरितमानस' में सुसंगठित कथानक

'रामचरितमानस 'का विख्यात कथानक इतिहास ,पुराणों, काव्यों,नाटकों  आदि में प्रचुरता से वर्णित हैं। तुलसी ने इसे अपने ढंग से सजाया और संवारा है। 'रामचरित- मानस' की कथावस्तु बहुत कुछ पौराणिक है ।अध्यात्म रामायण में शिवने पार्वती के प्रति रामकथा का वर्णन किया है। तुलसी ने 'मानस 'के प्रथम सोपान में मंगलाचरण के पश्चात ही स्पष्टत: लिखा है कि-


" नानापुराणनिगमागमसम्मतं  यद्

         रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोडपि।

  स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा

          भाषानिबंधमति मंजुलमातनोति।।"


तुलसी की रघुनाथ गाथा अर्थात्  'रामचरितमानस ' । इस प्रकार अपने अंतःकरण के सुख के लिए तुलसी ने इस ग्रंथ की रचना की है' रामचरितमानस' पर मानसरोवर का आरोप करके रूपक बांधा है । चार घाटों की कल्पना की है। ये चार घाट हैं- कर्मघाट, ज्ञानघाट, उपासना घाट और प्रपत्ति घाट। उनके वक्ता- श्रोता हैं -

याज्ञवल्क्य- भारद्वाज,शिव -पार्वती,

काकभुशुंडि -गरुड और तुलसी- संतजन।

सभी वक्ताओं का मुख्य प्रतिपाद्य राम भक्ति ही है।


'रामचरितमानस' की कथावस्तु का आयाम राम जन्म से लेकर राजाराम के वृत्त- वर्णन तक है । रामावतार के हेतुआओं का निरूपण करके मुख्य कथा का आरंभ किया गया है ।

'रामचरितमानस 'का समूचा कथानक सात कांडों में विभक्त हैं। आधिकारिक कथा मर्यादापुरुषोत्तम राम जैसे चरितनायक से सम्बद्ध है ।और कथानक के गठन की दृष्टि से आदि ,मध्य एवं अंत तीनों ही सुसंगठित है ।रामावतार के हेतुओं का निरूपण करके मुख्य कथा का आरंभ किया गया है । आधिकारिक कथावस्तु के साथ-साथ अनेक प्रासंगिक कथाएं भी चलती हैं जो मुख्य कथा को आगे बढ़ाती है। 'रामचरितमानस ' का समूचा कथानक अधिकतर संवादात्मक है । यही कारण है कि आज भी जहां-जहां रामलीलाएं होती है उसके मूल में 'मानस' को रखा जाता है । असत् पर सत् की विजय दिखलाना ही इस कथानक का महत्त उद्देश्य है ।


तुलसी की नारी भावना | तुलसी की नारी चेतना | Tulsidas Ka Nari Sambandhi Vichar

तुलसी के नारी संबंधी विचार इतने ज्यादा विवादास्पद रहे है कि समीक्षा के क्षेत्र में दो वर्ग स्पष्टत: अलग-अलग दिखाई देने लगे। एक वर्ग वह है जो यह मानता हैं कि तुलसी दास ने नारी की भूरी- भूरी प्रशंसा की है और दूसरा वर्ग यह मानता हैं कि तुलसी- दास घोर नारी निंदक थे ।

#Tulsidas Ka Nari Sambandhi Vichar

तुलसी की नारी भावना (नारी चेतना) के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के मत 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल और रामकुमार वर्मा जैसे समीक्षकों ने तुलसी को नारी प्रशंसक बताया है।


आचार्य शुक्लजी का यह मत है कि-

" युग व्यापक विराग और तप की भावना के कारण तुलसी ने नारी के उस रूप का विरोध किया है जो तप और निवृत्ति में बाधक है।"


इसी प्रकार रामकुमार वर्मा कहते  हैं-

" तुलसीदास ने नारी जाति के लिए बहुत आदर भाव प्रकट किया है। पार्वती,अनुसूया, कौशल्या ,सीता ,ग्रामवधू आदि की चरित्र- रेखा पवित्र और धर्मपूर्ण विचारों से निर्मित हुई है ।"


दूसरे पक्ष के हिमायती अर्थात् तुलसी को नारी  निंदक माननेवाले समीक्षकों में मिश्रबंधुओं का नाम सबसे ज्यादा लिया जाता है।


इसी तरह माताप्रसाद गुप्त कहते हैं-

" प्रत्येक युग के कलाकार नारी-चित्रण में प्रायः उदार पाए जाते हैं, किंतु नारी- चित्रण में तुलसीदास बेहद अनुदार हैं। यद्यपि उनकी इस अनुदारता का कारण अब तक रहस्य के गर्भ में छिपा हुआ है, पर नारी- विषयक उनकी अनुदारता एक ऐसा तथ्य है जिसको अस्वीकृत नहीं किया जा सकता।"


उपर्युक्त दोनों अवधारणाओं के अनेक कारण हैं। वास्तव में तुलसी की नारी भावना को परखने के लिए मोटे तौर पर चार शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है।

(१)  इष्ट से संबंधित नारी

(२)  नारी का आदर्श रूप

(३)  नारी का परंपरागत सामाजिक रूप

(४)  परंपरागत नारी निंदा