कबीरदास - एक समाज सुधारक
कबीर एक महान समाज सुधारक थे। वे पहले समाज सुधारक और बाद में कवि थे। कबीर के बारे में वर्कले ने कहा है कि युग की विभूतियां युग- प्रसूत होती हैं। हमारे महात्मा कबीर मध्ययुग की ऐसी ही महान विभूति थे। आइए कबीर की समाज सुधार विचार पर प्रकाश डालते हैं-
कबीर के समाज सुधार का वर्णन
(१) सामाजिक दशा
जिस समय महात्मा कबीर का जन्म हुआ था उस समय समाज के प्रत्येक क्षेत्र में अंधकार ,अस्तव्यस्तता और विश्रृंखलता फैली हुई थी । उस समय समाज की दशा बड़ी ही शोचनीय थी। हिंदू और मुसलमान- इन दोनों समाजों की धार्मिक एवं व्यावहा- रिक सभी बातों में आडंबर बढ़ता जा रहा था । सभी क्षेत्रों में काली लकीरें दिखाई देने लगी थी ।इसी के फलस्वरूप जाति तथा देश में सर्वत्र अस्तव्यस्तता और विश्रृंखलता फैली हुई थी ।संक्षेप में हिंदू समाज की दशा अत्यंत निराशाजनक थी ।
वर्णाश्रय व्यवस्था हिंदू धर्म का दृढ़ स्तंभ है। यवनों के प्रारंभिक आक्रमणों के साथ यह स्तंभ भी दृढ़तर होता गया।परिणाम यह हुआ कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भेदभावना और भी अधिक बढ़ गई।
इस प्रकार कबीर के समय में हिंदू समाज अपनी घोर हीनावस्था में था । उसमें न तो किसी प्रकार का उत्साह शेष रह गया था और न कोई स्पूर्ति ही। उसमें शिक्षा और सभ्यता दोनों का अभाव था । साधारण जनता में शिक्षा का अभाव था। समुचित शिक्षा के अभाव में अनेक प्रकार के अंधविश्वास और आडंबर समाज में प्रचार पाते चले जा रहे थे। धर्म के ठेकेदारों की तूती बोल रही थी ।समाज के इस विकृत रूप के प्रति कबीर की आत्मा विद्रोह कर उठीं।
यवन समाज की दशा हिंदू समाज से भी अधिक शोचनीय थी। यवन विजयी जाति होने के कारण अत्यंत अभिमानी और वैभवशाली थे। मद्यपान और द्युतक्रीडा तो उस युग की साधारण दुर्बलताएं थीं। यवनों में विलासप्रियता तो कूट-कूट कर भर गई थी ।इस प्रकार यवन समाज आचरण भ्रष्टता की दृष्टि से अपनी पराकाष्ठा पर था।
(२) धार्मिक दशा
कबीर के युग में भारतीय धर्म व्यवस्था भी अत्यंत अस्त- व्यस्त एवं विश्रृंखल थी। उस समय भारत में अनेक मत मतान्तर प्रचलित थे और विभिन्न संप्रदायों के जटिल विधानों तथा उनके अनुयायियों के परस्पर विरोधी आचरणों को समझना अथवा उनके वास्त- विक धर्म के रहस्य को जानना अत्यंत कठिन हो गया था । धर्म के वास्तविक अर्थ को भूलकर सभी संप्रदायवाले मात्र बाहरी आडंबर में ही विश्वास करने लगे थे। सभी "अपनी-अपनी ढपली और अपना -अपना राग "आलापने की धून में मस्त थे। दंभ, पाखंड और अहंकार सिर पर चढ़कर बोल रहे थे ।धर्म वस्तुतः व्यक्तिगत आध्यात्मिक कल्याण का प्रमुख साधन है, लेकिन इस समय वह पथभ्रष्टता और सामाजिक विश्रृंखलता का एक बहुत बड़ा कारण बन गया था । कबीर ने इस प्रकार की धार्मिक परिस्थिति को उस काल के व्यक्तिगत पतन और सामाजिक अधोगति का मूल सूचक माना और उसकी कड़ी आलोचना करके उसे सुधारने की चेष्टा की।
महात्मा कबीर कभी तो विविध साधनाओं की जटिलता का वर्णन करते हैं और कभी हिंदू और इस्लाम धर्म के आडंबरों ,पाखंडों और अंधविश्वासों का निर्देश करते हैं ।इसी प्रकार कभी रूढ़ियों की हंसी उड़ाते हैं और कभी धर्म के ठेकेदारों की पोल खोलते हैं। पंडित भी अपने विद्या के मिथ्या अहंकार में डूबे रहते थे ।पंडित ही नहीं, सन्यासी ,जोगी और तपस्वी भी अहंकार से रहित नहीं थे।
कबीर के जीवन का लक्ष्य समाज को इन्हीं मिथ्याचारों और विचारों के माया जाल से निकालकर एक सरल और सहज धर्म का उपदेश देना था।
(३) पारस्परिक संघर्ष
कबीर का युग संघर्ष का युग था। एक जाति दूसरी जाति को दबाने की चेष्टा कर रही थी। दूसरी पराजित होने पर भी हार मानने को तैयार नहीं थी। इसका परिणाम यह हुआ कि विद्वेषाग्नि सदा भभका करती थी और धर्म की आड़ में इस अग्नि में नित्य प्रति होम हुआ करते थे ।इन्हें देखकर कबीर की सरल और सात्विक आत्मा कांप उठी। उन्हें दोनों वर्गो हिंदू और मुसलमान के ठेकेदारों से इतनी अधिक घृणा हो गई कि यह भयंकर क्रांति के रूप में व्यक्त होने लगी । उन्होंने साफ कह दिया-
" पंडित मुल्ला जो लिख दिया ।
छांडि चले हम कछु न लिया । "
कबीर का कार्य
कबीर का युग विषमता का युग था । जीवन में, देश में, धर्म में ,समाज में भयंकर विष- मताएं है बढ़ती जा रही थीं। साम्यवादी कबीर भला इनको कैसे सहन कर सकते थे? वह उन विषमताओं रुपी कूड़ा- करकट को दर्शन, धर्म और समाज के क्षेत्र से हटाने में लग गए ।इस प्रकार स्पष्ट है कि यद्यपि कबीर का लक्ष्य सुधार करना था, किंतु युगीन परिस्थितियों ने ऐसी बातें करने के लिए बाध्य किया जो उन्हें सुधारक की पदवी दिलाने के लिए पर्याप्त समझी जा सकती है ।
(क) धर्म के क्षेत्र में
समाज की स्थिति को सुस्थिर बनाए रखने वाला तत्व 'धर्म ' है। इसके अंतर्गत प्रमुख रूप से धार्मिक विश्वास, रीति- रिवाज, उपासना विधि और साधना पद्धतियां आती हैं।कबीर का युग अन्धानुसरण एवं अंध- विश्वास का युग था । लोग धर्म का पालन हृदय से नहीं ,भय से किया करते थे ।
कबीर को धर्म में जप, तप, ज्ञान, ध्यान, पूजा ,आचार आदि सब व्यर्थ लगते थे। इसीलिए उन्होंने इन सब का खंडन किया है। मिथ्याचार उन्हें जहां कहीं भी दिखाई दिये, उनका उन्होंने डटकर विरोध किया है। उस समय के प्रमुख धर्म हिंदू और इस्लाम थे इन दोनों धर्मों में अनेक मिथ्या बाह्याचार प्रचलित हो चले थे ।उन्होंने सब का खंडन किया ।एक ओर तो वह हिंदुओं के जप,तप, पूजा, संध्या -वंदन, माला फेरना ,तीर्थ, व्रत बलि, तिलक आदि का खंडन करते हैं-
" झूठा जप, तप, झूठा ज्ञान,
राम नाम बिन झूठा ध्यान।"
वे हिंदुओं से कहते हैं कि यदि पत्थर पूजने से ईश्वर मिलता है, तो मैं पहाड़ की पूजा करने के लिए तैयार हूं-
" पाथर पूजे हरि मिलें तो मैं पूजूं पहार ।
ताते तो चाकी भली, पीस खाय संसार।।"
वे स्वर्ग और नरक को भी नहीं मानते-
" अनजाने को सरग नरक है,
हरि जाने को नाहिं।।"
हिंदू लोग जिन उपवासों को करते हैं, नेम घर्म करते हैं ,उपवास करने के उद्देश्य से अन्न छोड़ते हैं-इन सब को कबीर ने 'पाखंड' की संज्ञा दी है । उनके माला फेरने अथवा जप करने को निरर्थक बतलाकर अपने मन की ओर ध्यान देने का परामर्श दिया है ।माला फेरने वाले अज्ञानियों को तो उन्होंने खूब फटकारा है-
" माला फेरत जुग भया ,
फिरा न मन का फेर ।
करका मनका डारिके ,
मनका मनका फेर ।।"
दूसरी ओर मुसलमानों की नमाज, रोजा, आदि की खिल्ली उड़ाते हैं। वे मुसलमानों से कहते हैं कि तुम मस्जिद में जाकर जोर -जोर से क्यों चिल्ला रहे हो, क्या तुम्हारा खुदा बहरा हो गया है-
" कांकर पाथर जोरिकै, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाया ।।
+ + + +
ना जाने तेरा साहब कैसा है
मस्जिद भीतर मुल्ला पुकारे,
क्या साहब तेरा बहरा है? "
दिन भर तो रोजा रखा और रात को गाय मार कर खा गये तो फिर भला खुदा को खुशी कैसे हो सकती है? हिंसा से उन्हें बड़ी घृणा थी ।तभी तो उन्होंने कहा था-
" दिन भर रोजा रहत हैं,रात हनत हैं गाय।
यह तो खून व बंदगी, कहु क्यों खुशी खुदाया ।। "
हज,काबा जाने से कोई कार्य नहीं सरता, जब तक कि खुदा की असलियत को नहीं पहचाना जा सकता। कभी-कभी तो बाह्या- चारों के प्रचारकों पर इतना अधिक क्रुद्ध हो जाते थे कि कटुक्तियों की वर्षा करने लगते थे ।
" पाण्डे न करसि वाद विवाद ।
पण्डित वाद वदन्ते झूठा
पंडिया कौन कुमति तुम लोग ।"
" मीयां तुम्हसौं बोल्या बणि नहिं आवै।'
किंतु ऐसा उन्होंने किसी द्वेष भावना से नहीं किया है। इसमें उनकी सत्यनिष्ठा छिपी है, क्योंकि उनका कहना है - "जहां सांच तहं माडें बाद।" उनके खंडन प्राय: सतर्क हैं। कहीं-कहीं पर तर्क बहुत ही अधिक बुद्धि- वादी हैं। इसीलिए वे तर्क करते हैं कि यदि गंगा स्नान करने से मुक्ति मिलती है, तो फिर उस में निवास करनेवाले जीव- जंतुओं को मुक्ति क्यों नहीं मिलती? तथा
" मूंड मुंड़ाये जो सिधि होई,
स्वर्ग ही भेड न पहुंची कोई । "
कभी-कभी तो वे आडम्बरियों से बड़ी सहानुभूति के साथ पूछते हैं कि वे किस विचार से बाह्य पूजा कर रहे हैं?-
" कौन बिचारि करत हौं पूजा।। "
उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के बाह्याचारों का ही खंडन नहीं किया है, अवधूतों और जैनों की भी खबर ली है।
बाह्याडम्बरों का विरोध कबीर ने खंडना- त्मक शैली में ही नहीं, उपदेशात्मक शैली में भी किया है। ऐसे स्थलों पर वे उपदेश और गुरु के रूप में दिखलाई देते हैं। कबीर की बहुत सी सुधारात्मक उक्तियां उपदेश, आत्मबोध आदि विविध रूपों में अभिव्यक्त हुई हैं । कुछ सुधारात्मक उक्तियां तो सिद्धांत कथन के रूप में दिखलाई पड़ती हैं।
(ख) समाज क्षेत्र में
समाज क्षेत्र में कबीर की सुधार भावना अपने क्रांतिपूर्ण रूप में अभिव्यक्त हुई है। समाज के क्षेत्र में जो सबसे बड़ा कार्य करना चाहा था वह था साम्यवाद की प्रतिष्ठा। कबीर समाज क्षेत्र में ऊंच-नीच, ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,शूद्र आदि की भेद भावना को सहन नहीं कर पाते थे ।उन्होंने इस भेद भावना को आश्रय देनेवालों की अच्छी खबर ली है और दृढ़ता से उसकी निरर्थकता सिद्ध की है। छुआ -छूत पर तर्क उपस्थित करते हुए वे उनके ठेकेदार पंडितों से ही प्रश्न करते हैं कि - " हे पांडे, तुम्हीं बताओ कौन- सा स्थान पवित्र है ,जहां बैठकर भोजन किया जाय? संसार में वास्तवमें कोई वस्तु, कर्म और स्थल ऐसा नहीं, जो पवित्र हो ।"
जो हृर्दय से ईश्वर की भक्ति करता है , ईश्वर को चाहता है ,उसीको ईश्वर की प्राप्ति होती है-
"जातं पांत पूछे नहिं कोई।
हरि को भजे सो हरि का होई।"
उन्होंने स्पष्ट घोषित किया है-
"भूला भरमि परै जिनि कोई,
हिन्दू तुरुक झूठ कुल दोई ।"
इसी प्रकार की उक्तियां शूद्र के संबंध में कहते हैं -
"एक ज्योति से सब उत्पन्ना,
कौन बाम्हध कौन सूद । "
उनका यह दृढ़ विश्वास था कि शांति तभी मिल सकती है जब मनुष्य में समदृष्टि आ जाती है। कबीर की वाणी ने समाज क्षेत्र में एक और बहुत बड़ा कार्य किया था, वह है सात्विकता और आचरण- प्रवणता का प्रचार। कबीर के युग में वासना अपना भयंकर रूप धारण करती जा रही थी। कबीर को उसका डटकर सामना करना पड़ा था। उसके लिए उन्हें स्त्रियों की निंदा भी करनी पड़ी थी-
" नारी की झॉई परत, अंघा होत भुजंग।
कबीरा तिनकी कौन गति, जो नित नारी के संग ।। "
ब्रह्मचर्य का उपदेश देना पड़ा। इसके अतिरिक्त उन्होंने मांस- भक्षण, मद्यपान आदि का भी निषेध किया ।उन्होंने समाज में सात्विक वृत्तियों के प्रचार के लिए बड़ा तप किया था । वे क्रोध, तृष्णा, कपट आदि जितनी कुप्रवृतियां हैं,उन सब के कट्टर विरोधी थे।
जीवन की सरलता- "हरि न मिलै बिन हिरदै सूध ", हृदय की निष्कपटता, मन की शुद्धता आदि का प्रचार करना कबीर के सामाजिक सुधार का प्रमुख लक्ष्य था। उन्होंने सर्वत्र इन पर जोर दिया है। कभी-कभी तो कबीर का सुधारक और उपदेशक रूप बहुत स्पष्ट हो गया है। यह उक्ति देखिए-
”चलो विचारी रहौ संभारी करता हूं जू पुकारी।"
धर्म की बहुत सी बातें लोकाचार ,वेदाचार बनकर कुप्रथाओं के रूप में परिणत हो जाती है। इसलिए कबीर लोकाचार और वेदचार का पालन करना उचित नहीं समझते। उन्होंने इन सबका खंडन किया है-
" ताथे कहिए लोकाचार,
वेट कतेब कथै व्योहार । "
संत कबीर संपूर्ण जगत को एक ही परिवार मानते थे। वे संसार में सुधार के लिए वे संसार को विनम्रता ,दया, ज्ञान सदैव देते हैं।
जीवन में दया तथा विनम्रता से बड़ा कोई भी गुण नहीं है ।यदि आपके पास सारी दुनिया की दौलत होने के बाद भी अगर आपके पास विनम्रता की दौलत न हो तो सम्मान नहीं मिल पाता । कबीर अपनी वाणी के माध्यम से संसार में विनम्रता का संदेश देते हैं। समाज को एक नई दिशा दिखाते हैं। जिससे मानव अपने स्वार्थ, अहंकार, भेदभाव की भावना, सांसारिक मोह माया, मानवीय दोषों का परित्याग कर के पवित्र आत्मा बन सके। कबीर ने इन पर बल दिया है। कबीर समाज को एक संशोधन रूप में देखना चाहते थे।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में-
"कबीर ऐसे ही मिलन बिंदु पर खड़े थे, जहां से एक ओर हिंदुत्व निकल जाता है और दूसरी ओर मुसलमानत्व, जहां एक ओर से भक्ति मार्ग निकल जाता है दूसरी ओर योग मार्ग, जहां एक और निर्गुण भावना निकल जाती है दूसरी ओर सगुण साधना। उसी प्रशस्त चौराहे पर वे खड़े थे। वे दोनों को देख सकते थे और परस्पर विरूद्ध दिशा में गये हुए मार्गों के दोष-गुण उन्हें स्पष्ट दिखाई दे जाते थे ।"
वे कहते हैं कि समाज संबोधित तभी बन सकता है जब हिंदुओं तथा मुस्लिमों के मध्य भेदभाव को मिटाया जा सके। समाज में धार्मिक सद्भावना और साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित करने पर बल देते हैं। संत कबीर एक महान समाज सुधारक थे। वे बाद में एक कवि थे। उन्होंने समाज में सत्य, प्रेम का भण्डार, अज्ञान तथा घृणा, भेदभाव जाति प्रथा का खंडन किया है।
उन्होंने परंपरागत अंधविश्वासों, प्रथाओं और संस्थाओं का मूलोच्छेदन करके धर्म और दर्शन और समाज सभी क्षेत्रों में बुद्धिवादी साम्यवाद प्रतिष्ठित किया था ।वास्तव में उनका साम्यवाद भारत के लिए एक मौलिक देन है ।इसीके आधार पर चलकर आज भी भारत का उद्धार हो सकता ।
कबीर के समाज सुधारक के सम्बंध में विभिन्न विद्वानों के मत
(१) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में-
" कबीर ने ऐसी बहुत सी बातें कही हैं, जिनसे (अगर उपयोग किया जाय तो) समाज सुधार में सहायता मिल सकती है, पर इसलिए उनको समाज सुधारक समझना गलती है। वस्तुत: वे व्यक्तिगत साधना के प्रचारक थे। समष्टि- वृत्ति उनके चित्त का स्वाभाविक धर्म नहीं था। वे व्यष्टिवादी थे। सर्व-धर्म - समन्वय के लिए जिस मजबूत आधार की जरूरत होती है वह वस्तु कबीर के पदों में सर्वत्र अब पाई जाती है।"
( २ ) कबीर के समाज सुधारक के बारे में आचार्य सीताराम चतुर्वेदी का विचार है कि-
" उन्हें खुल्लम-खुल्ला समाज सुधारक भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उन्होंने स्वामी दयानंद सरस्वती की भांति ऐसा कोई समाज नहीं स्थापित किया ,जिसका उद्देश्य ही समाज सुधारक एवं धर्म सुधार हो और न उन्होंने विशेष धर्म का पक्ष लिया था ।वस्तुत: वे युगपुरुष थे, उन्होंने समकालीन समाज को पथभ्रष्ट देखकर उसे सही मार्ग पर लाने का प्रयास किया।"
( ३ ) श्री प्रकाश गुप्त ने कबीर के सुधारक रूप को रेखांकित करते हुए यह उद्गार व्यक्त किये हैं-
"यद्यपि सुधार करना या नेतागिरी की प्रवृत्ति फक्कड़ मस्तमौला संत कबीर में नहीं थी, किंतु वे समाज के कूड़ा कर्कट या कुरूप को निकाल फेंकना चाहते थे। अपनी इसी प्रवृत्ति के कारण वे स्वत: सुधारक बनना चाहते हुए भी राम दिवाने थे। कबीर को सुधारक का पद प्राप्त हो ही जाता है। वास्तव में तो वे मानव के दु:ख से उत्पीड़ित हो उसकी सहायता के लिए चले। जनता के दु:ख दर्द और उसकी वेदना सरस्वती बही थी।"
निष्कर्ष:
इस प्रकार कबीर नवयुग का निर्माण करने वाले भारत की अन्यतम् विभूति थे। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि कबीर अपने युग की परिस्थितियों से विशेष रूप से प्रभावित हैं। इन परिस्थितियों से बाध्य होकर उन्होंने एक सुधारक कवि के रूप में अमूल्य योगदान दिया है।
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