कबीर दास

संत काव्य की प्रमुख विशेषताएं | प्रवृत्तियाँ | Sant Kavya


संत काव्य | Sant Kavya

हिंदी साहित्य के भक्ति काल में दो धाराएं प्रवाहित हुई-

१. सगुण साहित्य

२. निर्गुण साहित्य

सगुण और निर्गुण साहित्य सम्बन्धी कुछ विशेष बिंदु

  • सगुण काव्यधारा को दो शाखाओं में विभाजित किया गया राम काव्य धारा तथा कृष्ण काव्य धारा। 
  • निर्गुण काव्य धारा को दो शाखाओं में विभाजित किया गया संत काव्य धारा तथा सूफी काव्य धारा‌। 
  • संत काव्य धारा को ज्ञानमार्गी या ज्ञानाश्रयी शाखा भी कहा जाता है। 
  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निर्गुणधारा के संत काव्य का नाम 'निर्गुण ज्ञानाश्रयी  शाखा' दिया है। 
  • आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इसे 'निर्गुण भक्ति साहित्य' कहते हैं । 
  • रामकुमार वर्मा ने संत काव्य नाम दिया है जो अपेक्षाकृत अधिक संगत है।


संत शब्द का अर्थ

'संत' शब्द संस्कृत की धातु ' सद् ' से बना है और कई प्रकार से प्रयोग हुआ है (सत्य, वास्तविक, ईमानदार, सही)। इसका मूल अर्थ है 'सत्य जानने वाला' या 'जिसने अंतिम सत्य अनुभव कर लिया हो।'

'संत' शब्द से आशय उस व्यक्ति से है, जिसने सत परम तत्व का साक्षात्कार कर लिया हो। साधारण रूप में ईश्वरोन्मुख किसी भी सज्जन को और संकुचित रूप में निर्गुणोपासक भक्त को संत कहते हैं।


परशुराम चतुर्वेदी के मत में -

" संत शब्द उस व्यक्ति की ओर संकेत करता है, जिसने सतरूपी परमतत्व का अनुभव कर लिया हो ।"

इस प्रकार जो सत्य का साक्षात्कार कर चुका हो, वही संत है। हिंदी साहित्य में कबीर, दादूदयाल, रैदास, नानक, और सुंदरदास आदि के काव्य को संत काव्य माना जाता है। संतकाव्य परंपरा १२ वीं सदी से आज तक चलती आई है। लेकिन धीरे-धीरे इसका काव्य पिष्टपेषित होने के कारण महत्वहीन होता गया । मध्ययुग की समाप्ति तक अपनी रूढ़िवादिता के कारण इसकी क्रांतिकारी भावना समाप्त हो गई । कबीर इस काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि हैं।


संत काव्य की प्रमुख विशेषताएं | प्रवृत्तियाँ | Sant Kavya ki Pravritiyan

संत काव्य में अनेक धार्मिक संप्रदायों के तत्वों का समन्वय है, लेकिन संतो ने धर्म अथवा साधना की शास्त्रीय ढंग से परिभाषा नहीं दी। संत साधु पहले थे और कवि बाद में । संत काव्य की सामान्य  विशेषताएं निम्नलिखित हैं-


(१) निर्गुण ईश्वर में विश्वास

संत कवियों ने अपने काव्य में निर्गुण ईश्वर में विश्वास और कुछ सीमा तक सगुण रूप का विरोध किया है। कबीर का कथन है-

" दशरथ सुत तिहुं लोक बखाना ।

  राम नाम का मरम है आना ।  "


संत निर्गुण ब्रह्म में विश्वास करते हैं जो घट -घट में वास करता है।  इनके ईश्वर का न तो कोई रंग है, न रूप है, न जाति है ,न कोई आकर है, न वह जन्म लेता है और न ही वह मर सकता है, वह तो अजर -अमर है , आगोचर है ,निराकार है ,निर्गुण है ,शाश्वत है ।सभी वर्णो एवं जातियों के लिए वह निर्गुण ही उपास्य है।

" निर्गुण राम जपहु रे भाई ?

  अविगत की गति लिखी न जाई ।"


(२)  बहुदेववाद तथा अवतारवाद का विरोध

संतो ने बहुदेववाद तथा अवतारवाद की भावना का खंडन किया है। इसका कारण, शंकर मत का प्रभाव तथा तत्कालीन मुसलमान शासकों का एकेश्वरवादी होना था । हिंदू -मुस्लिम एकता के लिए संतों ने एकेश्वरवाद का संदेश सुनाया ।

कबीर कहते हैं -

"अक्षर पुरुष इक पेड़ है, निरंजन वाकी डार । 

  त्रिदेवा शाखा भये, पात भया संसार। "

वस्तुत: संतो की उपासना का लक्ष्य सगुण और निर्गुण दोनों से परे है।  फिर भी सगुन उपासकों की भांति उन्होंने अपने प्रियतम को राम, कृष्ण ,गोविंद, केशव आदि नामों से पुकारा है।


(३) गुरु का महत्व

संत काव्य के सभी कवियों ने गुरु के महत्व को प्रतिपादित करते हुए उसे ईश्वर  से भी अधिक महत्व दिया है  क्योंकि ईश्वर तक पहुंचाने वाला गुरु ही है।  गुरु ही ज्ञान के द्वारा ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताता है ।

कबीर कहते हैं-

" गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय।

  बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताया ।" 


संत कवियों का विश्वासहै कि राम की कृपा तभी संभव है जब गुरु की कृपा होती है ।कबीर कहते हैं -

" गुरु धोबी सिस का कपड़ा, साबुन

  सिरजनहार।

  सूरति शिला पर धोइए निकसे ज्योति

  अपार ।"

अर्थात् गुरु धोबी के समान है, शिष्य कपड़े के समान है और प्रभु उस साबुन के समान है जिसके प्रयोग से कपड़ा साफ होता है ।इस प्रकार गुरु कृपा के बिना शिष्य में ज्ञान का विकास संभव नहीं  है। 


कबीर की भाषा शैली | Kabir Das - Bhasa Shaili



कबीर दास जी की भाषा - शैली | कबीर की भाषा शैली पर प्रकाश / निबंध - कबीर की भाषा पर विभिन्न विद्वानों के मत, कबीर के ग्रंथों में प्रयुक्त भाषा की विशेषताएं / प्रवृतियां, कबीर की शैली के उदाहरण

कबीर दास जी की भाषा शैली पर प्रकाश

अभिव्यक्ति वाणी की प्राण शक्ति का दूसरा नाम है। इसे हम अपनी अनुभूतियों को दूसरे तक पहुंचाने की प्रक्रिया भी कह सकते हैं। भाषा और अभिव्यक्ति का घनिष्ठ संबंध है। कबीर दास जी की भाषा शैली क्या थी? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए एवं  कबीर की भाषा-शैली सही ढंग से जानने के लिए इस लेख को आखिर तक पढ़ेंगे। अतः यहां पर पहले हम कबीर की भाषा पर संक्षेप में विचार करेंगे। कबीर की भाषा के बाद कबीर की शैली पर प्रकाश डालेंगे।


कबीर का जीवन परिचय | Kabir Das Ka Jivan Parichay

#Kabir Das Ka Jivan Parichay

कबीर का जीवन चरित्र | kabir das ka jivan parichay

भारतीय महापुरुषों के जीवनचरित के संबंध में प्राय बड़ी गड़बड़ी देखने को मिलती है। उनके लौकिक जीवन की सूचना देनेवाली निश्चित घटनाओं, तिथियों आदि का उल्लेख बहुत कम मिलता है। संत, महात्माओं और कवियों के संबंध में तो और भी कम सामग्री उपलब्ध है।  जायसी, सूरदास आदि की जीवनी आज भी अपूर्ण ज्ञात है। और यही बात कबीर के संबंध में भी कही जा सकती है। उनके जन्म-समय, जन्म-स्थान, निधन-समय ,परिवार, माता -पिता आदि के संबंध में  विभिन्न मत और जनश्रुतियां प्रचलित है। कबीरदास के व्यक्तित्व का निरूपण हमें विभिन्न रूपों में देखने को मिलता है।


कबीर का जन्म समय

कबीर के जन्म को लेकर पर्याप्त मतभेद मिलते हैं।


( १ ) बील के मतानुसार कबीर का जन्म समय १४९० ई. के लगभग हुआ था।


( २ ) फर्कुहर के अनुसार  इनका जन्म समय१४०० ई. माना जाता है।


( ३ ) मेकालिफ के अनुसार  इनका जन्म समय१३९८ ई. है।


( ४ ) वेसकट,स्मिथ तथा भण्डारकर के मत से इनका जन्म समय १४४० ई. माना जाता है।


( ५ ) अन्तस्साक्ष्य और 'कबीर चरित्रबोध' के प्रमाण से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि कबीर का आविर्भाव  १३९८ई. में हुआ था ।


( ६ ) अधिकतर विद्वान कबीरपन्थियों के एक उल्लेख के आधार पर कबीर का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा सोमवार सं. १४५५ में होना स्वीकार करते हैं ।


कबीरदास जी का जन्म

कबीर के जन्म के संबंध में विभिन्न दन्तकथाएं प्रचलित हैं। कुछ लोगों का कहना है कि कबीर जन्म सरोवर में एक कमल पर हुआ था । एक अन्य जनश्रुति से पता चलता है कि कबीर का जन्म काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था । जिसने लोकापवाद के भय से इन्हें काशी में लहरतारा तालाब के किनारे डाल दिया था। भाग्यवश नीरू नामक एक जुलाहा अपनी पत्नी नीमा के साथ उधर से निकला, जो इन्हें उठाकर घर ले गया और वहीं कबीर का पालन-पोषण हुआ । डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी मानते हैं कि कबीर काशी की जुलाहा जाति में पालित और वर्धित हुए । उनका कहना है कि इस प्रकार कबीर में हिंदू और मुस्लिम, दोनों जातियों के संस्कार विद्यमान थे ।


कबीरपंथियों में इनके जन्म के विषय में यह पद्य प्रसिद्ध है -

"चौदह सौ पचपन साल गए,चंद्रवार एक ठाठ  ठए।

जेठ सुदी बरसात  को पूरनमासी तिथि प्रकट भए ।।

घन गरजें  दामिनि दमके बूंदे बरषें झर लाख  गए ।

लहर तलाब में कमल खिले तहं  कबीर भानु प्रगट भए ।। "



कबीर का जन्म-स्थान

कबीर के जन्म-स्थान के संबंध में तीन मत हैं:

मगहर, काशी और आजमगढ़ में बेलहरा गांव।मगहर के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि कबीर ने अपनी रचना में वहां का उल्लेख किया है-


"पहिले दरसन मगहर पायो पुनि कासी बसे आई "


कबीर : समाज सुधारक के रूप में | कबीर के कार्य | Kabir Ka Samaj Sudharak Vichar

#Kabir Ka Samaj Sudharak Vichar

कबीरदास - एक समाज सुधारक

कबीर एक महान समाज सुधारक थे। वे पहले समाज सुधारक और बाद में कवि थे। कबीर के बारे में वर्कले ने कहा है कि युग की विभूतियां युग- प्रसूत होती हैं। हमारे महात्मा कबीर मध्ययुग की ऐसी ही महान विभूति थे। आइए कबीर की समाज सुधार विचार पर प्रकाश डालते हैं-


कबीर के समाज सुधार का वर्णन

(१) सामाजिक दशा

जिस समय महात्मा कबीर का जन्म हुआ था उस समय समाज के प्रत्येक क्षेत्र में अंधकार ,अस्तव्यस्तता और  विश्रृंखलता फैली हुई थी । उस समय समाज की दशा बड़ी ही शोचनीय थी।  हिंदू और मुसलमान- इन दोनों समाजों की धार्मिक एवं  व्यावहा- रिक सभी बातों में आडंबर बढ़ता जा रहा था । सभी क्षेत्रों में काली लकीरें दिखाई देने लगी थी ।इसी के फलस्वरूप जाति तथा देश में सर्वत्र अस्तव्यस्तता और विश्रृंखलता फैली हुई थी ।संक्षेप में हिंदू समाज की दशा अत्यंत निराशाजनक थी ।


वर्णाश्रय व्यवस्था हिंदू धर्म का दृढ़ स्तंभ है। यवनों के प्रारंभिक आक्रमणों के साथ यह स्तंभ भी दृढ़तर होता गया।परिणाम यह हुआ कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भेदभावना और भी अधिक बढ़ गई।


इस प्रकार कबीर के समय में हिंदू समाज अपनी घोर हीनावस्था में था । उसमें न तो किसी प्रकार का उत्साह शेष रह गया था और न कोई स्पूर्ति ही। उसमें शिक्षा और सभ्यता दोनों का अभाव था । साधारण जनता में  शिक्षा का अभाव था। समुचित शिक्षा के अभाव में अनेक प्रकार के अंधविश्वास और आडंबर समाज में प्रचार पाते चले जा रहे थे। धर्म के ठेकेदारों की तूती बोल रही थी ।समाज के इस विकृत रूप के प्रति कबीर की आत्मा विद्रोह कर उठीं।


यवन समाज की दशा हिंदू समाज से भी अधिक शोचनीय थी। यवन विजयी जाति होने के कारण अत्यंत अभिमानी और वैभवशाली थे। मद्यपान और द्युतक्रीडा  तो उस युग की साधारण दुर्बलताएं  थीं। यवनों में विलासप्रियता तो  कूट-कूट कर भर गई थी ।इस प्रकार यवन समाज आचरण भ्रष्टता की दृष्टि से अपनी पराकाष्ठा पर था।


(२) धार्मिक दशा

कबीर के युग में भारतीय धर्म व्यवस्था भी अत्यंत अस्त- व्यस्त एवं विश्रृंखल थी। उस समय भारत में अनेक मत मतान्तर  प्रचलित  थे और विभिन्न संप्रदायों के जटिल विधानों तथा उनके अनुयायियों के परस्पर विरोधी आचरणों को समझना अथवा उनके वास्त- विक धर्म के रहस्य को जानना  अत्यंत कठिन हो गया था । धर्म  के वास्तविक अर्थ को भूलकर सभी संप्रदायवाले मात्र बाहरी आडंबर में ही विश्वास करने लगे थे। सभी "अपनी-अपनी ढपली और अपना -अपना राग "आलापने की धून में मस्त थे। दंभ, पाखंड और अहंकार सिर पर चढ़कर बोल रहे थे ।धर्म वस्तुतः व्यक्तिगत आध्यात्मिक कल्याण का प्रमुख साधन है, लेकिन इस समय वह पथभ्रष्टता  और सामाजिक विश्रृंखलता का एक बहुत बड़ा कारण बन गया था । कबीर  ने इस प्रकार की धार्मिक परिस्थिति को उस काल के व्यक्तिगत पतन और सामाजिक अधोगति का मूल सूचक माना और उसकी कड़ी आलोचना करके उसे सुधारने की चेष्टा की।


महात्मा कबीर कभी तो विविध साधनाओं की जटिलता का वर्णन करते हैं और कभी हिंदू और इस्लाम धर्म के आडंबरों ,पाखंडों और अंधविश्वासों  का निर्देश करते हैं ।इसी प्रकार कभी रूढ़ियों की हंसी उड़ाते हैं और कभी धर्म के ठेकेदारों की पोल खोलते हैं। पंडित भी अपने विद्या के मिथ्या अहंकार में डूबे रहते थे ।पंडित ही नहीं, सन्यासी ,जोगी और तपस्वी भी अहंकार से रहित नहीं थे।


कबीर के जीवन का लक्ष्य समाज को इन्हीं मिथ्याचारों और विचारों के माया जाल से निकालकर एक सरल और सहज धर्म का उपदेश देना था।


(३) पारस्परिक संघर्ष

कबीर का युग संघर्ष का युग था। एक जाति दूसरी जाति को दबाने की चेष्टा कर रही थी। दूसरी पराजित होने पर भी हार मानने को तैयार नहीं थी। इसका परिणाम यह हुआ कि विद्वेषाग्नि सदा भभका करती थी और  धर्म की आड़ में इस अग्नि में नित्य प्रति होम हुआ करते थे ।इन्हें देखकर कबीर की सरल और सात्विक आत्मा कांप उठी। उन्हें दोनों वर्गो हिंदू और मुसलमान के ठेकेदारों से इतनी अधिक घृणा हो गई कि यह भयंकर क्रांति के रूप में व्यक्त होने लगी । उन्होंने साफ कह दिया-


" पंडित मुल्ला जो  लिख दिया ।

  छांडि चले हम कछु न लिया । "


कबीर के दार्शनिक विचार | दार्शनिक विचारधारा के तत्व

@Kabir Das - Darshnik Vichar

कबीर के दार्शनिक विचार | Kabir Das - Darshnik Vichar

कबीर के दार्शनिक विचार पर विभिन्न विद्वानों के मत

आचार्य क्षितिमोहन सेन के अनुसार-

"कबीर की आध्यात्मिक क्षुधा और आकांक्षा विश्वग्राही है । यह कुछ भी छोड़ना नहीं चाहती ,इसलिए वह ग्रहण शील है, वर्जनशील नहीं। इसीलिए उन्होंने हिंदू, मुसलमान , सूफी, वैष्णव, योगी ,प्रभृत्ति सब साधनाओं को जोर से पकड़ रखा है। "

उक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि कबीर ने अपनी वाणी में सिद्धांत और साधना के तत्वों का निरूपण किसी सीमित क्षेत्र के अंतर्गत रहकर नहीं किया । अधिकतर विद्वानों का यह मत है कि आपका ब्रह्म निरूपण वैदिक ढंग  पर होते हुए भी अपने अंदर अनेक धर्मों के प्रचलित ब्रह्म निरूपण की भावना को सम्मान के साथ अंगीकार करके चलता है।इनके ब्रह्म पर उपनिषदों , योगियों के विलक्षणवाद, बौद्धों,सिद्धों और योगियों के शून्यवाद सभी की छाया न्यूनाधिक रूप से मिलती है । इन पर सहजवादियों,सहज- ब्रह्मवाद का भी प्रभाव है। इस्लामी एकेश्वरवाद, सूफियों के इश्क इत्यादि से बचना भी उनके लिए कठिन था।

इस प्रकार कबीर के दार्शनिक विचारों और साधना पद्धति को समझने के लिए बहुत ही व्यापक दृष्टिकोण से आगे बढ़ने की आवश्यकता है।


दार्शनिक विचारधारा के तत्व

( १ ) ब्रह्म विचार

" नहिं निरगुन, नहिं सरगुन भाई,

   नहिं सूछम अस्थूल ।

   नहिं अक्षर, नहिं अविगत भाई,

   ये सब जग की भूल ।।"

   +         +          +        +        +

"साहब मेरा एक है, दूजा कहा ना जाय,

  दूजा साहब को कहूं , साहब खरा      

  रिसाय ।। "


कबीर की उलटवांसियां | Kabir Ki Ulatbansian | कबीर दास - उलटबांसियां

Kabir Ki Ulatbansian

कबीर दास की उलटवांसियां | उलटबांसियां | Kabir Ki Ulatbansian

आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के शब्दों में -

"उलटवांसी का प्रमुख उद्देश्य किसी बात का किसी विपरीत वा असाधारण कथन के द्वारा वर्णन करना है। तद्नुसार 'उलटवांसी' शब्द को भी 'उल्टा' तथा 'अंश' - जैसे दो शब्दों को जोड़कर बनाया गया माना जा सकता है। उस दशा में इसका तात्पर्य उस रचना से होगा जिसके किसी न किसी अंश में उलटी बातें मिलती हैं।'
उलटवांसियों के प्रयोग वैदिक साहित्य तक में मिलते हैं। इसी प्रकार 'ब्राह्मण' ग्रंथों में भी कई स्थल ऐसे आए हैं जिनकी विचित्र भाषा का अर्थ नहीं होता और उनके रहस्यों का उद्घाटन बहुधा रूपकों की सहायता से किया जाता है । उलटवांसियों के ऐसे प्रयोग बौद्धों के साहित्य में भी मिलते हैं और जैन साहित्य तथा नाथ साहित्य में भी इनकी कमी नहीं है। 
बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध ग्रंथ 'धम्मपद' के अंतर्गत एक स्थल पर कहा गया है कि " माता-पिता दो क्षत्रिय राजाओं तथा अनुचर सहित राष्ट्र को नष्ट करके ब्राह्मण निष्पाप हो जाता है।" उसके आगे फिर इस प्रकार भी आता है कि " माता-पिता दो क्षत्रिय राजाओं तथा पांचवें व्याघ्र को मार कर ब्राह्मण निष्पाप हो जाता है।" इसे सुनकर हमें महान आश्चर्य होता है। इसके सिवाय बौद्ध धर्म के वज्रयान तथा सहजयान नामक संप्रदायों के अनुयायी सिद्धों ने भी अपने चर्यापदों में इस प्रकार के अनेक प्रयोग किए हैं। बौद्ध सिद्धों की इस वर्णन शैली को कुछ दूर तक जैन मुनियों ने भी अपनाया है। 
नाथ साहित्य के अंतर्गत नाथ कवियों की रचनाओं के अतिरिक्त योग साधना-संबंधी ग्रंथ भी आते हैं, जिनमें ऐसे प्रयोग दीख पड़ते हैं। गुरु गोरखनाथ की ' उलटी चरचाएं ' नाथ कवियों से कहीं अधिक रहस्यमयी है और उनमें से कई एक अंशत: कबीर साहब की  पंक्तियों से भी मिलती हैं ।
कबीर अपनी उलटवांसियों के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं। उनके नाम पर निर्मित अनेक उलटवांसियां सर्वसाधारण तक में पाई जाती हैं। ये उलटवांसियां बहुधा अटपटी बानियों (वाणियों) के रूप में रची गई रहती हैं। इस कारण इनके गूढ आशय को शीघ्र समझ न पाने वाला इन्हें सुनकर आश्चर्य में अवाक रह जाता है। जब कभी वह इनके शब्दों के पीछे निहित रहस्य को जान पाता है तो उसे अपार आनंद भी मिलता है। कबीर साहब की उपलब्ध रचनाओं के अंतर्गत उनकी ऐसी अनेक उलटवांसियां मिलती हैं, किंतु वे कहीं भी उन्हें 'उलटवांसी' नाम द्वारा अभिहित करते नहीं दिख पड़ते। इनकी रचना करते समय वे इनके विषय में कहीं-कहीं केवल इस प्रकार कहते पाये जाते हैं-

१. सोई पंडित सो तय ग्याता,
    जो इहि  पदहि बिचारै ।
    कहे कबीर सोई गुरु मेरा,
    आप तिरै  मोहि तारै ।।

२. कहे कबीर या पद कौं बूझै,
    ताकूं तीन्यूं त्रिभुवन सूझै ।

३. कहै कबीर ताहि गुरु करौं,
    जो या पदहि बिचारै ।

४. अवधू , सो जोगी गुरु मेरा,
    जो या पद का करै नबेरा ।

कबीर का रहस्यवाद | कबीर के रहस्यवाद की धाराएं (प्रकार) | अवस्थाएं | विशेषताएं

#Kabir ka rahasyavad

कबीर का रहस्यवाद | Kabir Das

कबीर के रहस्यवाद पर विभिन्न विद्वानों के मत 

डॉ रामकुमार वर्मा के मताअनुसार कबीर का रहस्यवाद-

"रहस्यवाद आत्मा की उस अन्तर्हित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शांत और निश्छल संबंध जोड़ना चाहती है ,यह संबंध यहां तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अंतर नहीं रह जाता ।"

" संतो जागत नींद न कीजै ।"

कबीर का रहस्यवाद अपनी विशेषता लिए हुए है। वह एक ओर तो हिन्दुओं के अद्वैतवाद के क्रोड़ में पोषित है और दूसरी और मुसलमानों के सूफी सिद्धांतों को स्पर्श करता है ।इसका कारण यह है कि कबीर हिंदू और मुसलमान दोनों प्रकार के संतों के सत्संग में रहे थे और वे प्रारंभ से ही यह चाहते थे कि दोनों धर्म वाले आपस में दूध पानी की तरह मिल जाए। इसीलिए उन्होंने दोनों के वशीभूत होकर अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है। उनके  रहस्यवाद में अद्वैतवाद और सूफ़ीमत की गंगा- जमुनी साथ-साथ बह रही है।

" आशिक होकर सोना क्यारे ?

  पाया है फिर खोना क्यारे ?


अद्वैतवाद ही मानों रहस्यवाद का प्राण है।


" जल में कुंभ कुंभ में जल है,

   बाहर भीतर पानी ।

   फूटा कुंभ जल जल ही समाना,

   यह तथ कथ्यो गियानी ।।"


यही अद्वैतवाद कबीर के रहस्यवाद का आधार है। उनके अनुसार जीव और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है । वे जीव को  ब्रह्म का अंश   मानते हैं। उन्होंने स्पष्ट घोषित किया है-


" कहु कबीर यहु राम को अंश जस कागद                            

   पर मिटै न मंसु । "


एक स्थल पर  उन्होंने दोनों के संबंध को बिंदु और समुंद्र के दृष्टांत से भी स्पष्ट किया है-

" हेरत हेरत हे सखी........

   +          +           +          ‌+

   आपहि  बीज, वृच्छ अंकूरा ।

   आप फूल फल छाया ।।

   आप ही सूर, किरन,परकासा ।

   आप ब्रह्म जिव माया ।। "


कबीर को अद्वैतवादी सिद्ध करने के लिए उपर्युक्त पंक्तियां बहुत सुंदर उदाहरण है। विद्वानों ने कबीर को अद्वैतवादी ही कहा है। इस विषय में कहे हुए डॉ. पीतांबरदत्त वडथ्वाल के निम्नलिखित विचार दृष्टव्य  हैं-

"संत संप्रदाय के इन अद्वैती संतों ने इस सत्य को स्वयं अपने जीवन में अनुभूत कर दिया था। कबीर ने इस संबंध में अपने भाव बड़ी दृढ़ता और स्पष्टता के साथ व्यक्त किए हैं ।आत्मा और परमात्मा की एकता में उनका अटल विश्वास था। इन दोनों में इतना भी भेद नहीं कि हम उन्हें एक ही वस्तु के दो पक्ष कह सकें। पूर्ण ब्रह्म के दो पक्ष हो ही नहीं सकते। दोनों सर्वथा एक है।"

दूसरा आधार है मुसलमानों का  सूफी मत।

सूफीमत में ईश्वर की भावना स्त्री रूप में मानी गई है। वहां भक्त पुरुष बनकर ईश्वर रूपी स्त्री की प्रसन्नता के लिए सौ जान से निसार होता है, उसके हाथ की शराब पीने के लिए पीने को तरसता है, उसके द्वार पर जाकर प्रेम की भीख मांगता है। ईश्वर एक दैवी स्त्री के रूप में उसके सामने उपस्थित होता है ।


अंत में हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अद्वैतवाद में आत्मा और परमात्मा के एकीकरण -मिलन -संयोग होने में माया का (चिंतन का) बड़ा महत्वपूर्ण भाग है, और सूफ़ीमत में  उसीके लिए  हृदय की  चार अवस्थाओं और प्रेम का महत्वपूर्ण स्थान है ।

जैसा कि ऊपर कहा गया है कबीर का रहस्यवाद हिंदुओं के अद्वैतवाद  और मुसलमान के सूफीमत पर आश्रित है । इसीलिए कबीर ने अपने रहस्यवाद के  स्पष्टीकरण में दोनों की अद्वैतवाद और  सूफीमत की बातें ली है। फलत: उन्होंने अद्वैतवाद से माया  और चिंतन और सूफी मत से प्रेम लेकर अपने रहस्यवाद की सृष्टि की ।


डॉ. त्रिगुणायत के मतानुसार कबीर का रहस्यवाद-

" कहीं पर उनमें सूफियों के प्रेममार्ग का निरूपण मिलता है और कहीं पर हठ- योगियों के पारिभाषिक शब्दों एवं प्रक्रियाओं का रहस्यात्मक वर्णन है । कहीं

वे सिद्धों  की संध्या भाषा की शैली का अनुकरण करते हैं और  कभी उपनिषदों के ढंग पर रहस्यात्मक शैली में तत्व का प्रति- पादन।"


रहस्यवाद की अवस्थाएं

प्रेम की अनुभूति तभी होती है जब कवि उस परमात्मा के प्रति अपना निश्छल और शांत  संबंध स्थापित करने का प्रयत्न करता है । जब उस दिव्य ज्योति के साथ एकाकार हो जाना चाहता है।  यहीं से रहस्यवाद की प्रक्रिया आरंभ होती है । इसकी तीन अवस्थाएं हैं


कबीर की भक्ति भावना | Kabir Das - Bhakti Bhavna



कबीरदास की भक्ति भावना पर प्रकाश | Kabir Das - Bhakti Bhavna

भारत में भक्ति की अलौकिक धारा अनादिकाल से बह रही है। स्वामी रामानुजाचार्य ने भारत में भक्ति भावना का बीजारोपण सर्वप्रथम किया था। उसे परिवर्धित करने का श्रेय स्वामी रामानंद और उनके शिष्य कबीर को है। किसी की यह युक्ति इसी बात का समर्थन करती है-

" भक्ति द्राविड़ ऊपजी लाए रामानंद।
   परगट किया कबीर ने सप्तदीप नव
   खण्ड ।। "

मध्य युग की साधारण धर्म प्रवण जनता को सिद्धों की बीभत्स साधनाओं के दलदल से तथा नाथों को यौगिक प्रक्रियाओं के  गर्त से बाहर निकालकर भाव- भक्ति की अलौकिक एवं पावन पयस्विनी में अवगाहन कराने का पूर्ण श्रेय भक्त कबीर को है । यह भाव भक्ति उनके गुरु की दिव्य देन थी । इसीको पाकर कबीर- कबीर हुए थे। आज भी उनकी भाव भक्ति भारत के हृदय का हार है । कबीर प्रधान रूप से नारदीय भक्ति परंपरा से प्रभावित दीख पड़ते हैं, परंतु प्रभाव उन पर नारदीय ग्रंथों के अतिरिक्त  श्रीमद्भागवत् और  श्रीमद्भग- वद्गीता का भी है ।