कबीर की उलटवांसियां | Kabir Ki Ulatbansian | कबीर दास - उलटबांसियां

कबीर की उलटवांसियां | Kabir Ki Ulatbansian | कबीर दास - उलटबांसियां

    Kabir Ki Ulatbansian

    कबीर दास की उलटवांसियां | उलटबांसियां | Kabir Ki Ulatbansian

    आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के शब्दों में -

    "उलटवांसी का प्रमुख उद्देश्य किसी बात का किसी विपरीत वा असाधारण कथन के द्वारा वर्णन करना है। तद्नुसार 'उलटवांसी' शब्द को भी 'उल्टा' तथा 'अंश' - जैसे दो शब्दों को जोड़कर बनाया गया माना जा सकता है। उस दशा में इसका तात्पर्य उस रचना से होगा जिसके किसी न किसी अंश में उलटी बातें मिलती हैं।'
    उलटवांसियों के प्रयोग वैदिक साहित्य तक में मिलते हैं। इसी प्रकार 'ब्राह्मण' ग्रंथों में भी कई स्थल ऐसे आए हैं जिनकी विचित्र भाषा का अर्थ नहीं होता और उनके रहस्यों का उद्घाटन बहुधा रूपकों की सहायता से किया जाता है । उलटवांसियों के ऐसे प्रयोग बौद्धों के साहित्य में भी मिलते हैं और जैन साहित्य तथा नाथ साहित्य में भी इनकी कमी नहीं है। 
    बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध ग्रंथ 'धम्मपद' के अंतर्गत एक स्थल पर कहा गया है कि " माता-पिता दो क्षत्रिय राजाओं तथा अनुचर सहित राष्ट्र को नष्ट करके ब्राह्मण निष्पाप हो जाता है।" उसके आगे फिर इस प्रकार भी आता है कि " माता-पिता दो क्षत्रिय राजाओं तथा पांचवें व्याघ्र को मार कर ब्राह्मण निष्पाप हो जाता है।" इसे सुनकर हमें महान आश्चर्य होता है। इसके सिवाय बौद्ध धर्म के वज्रयान तथा सहजयान नामक संप्रदायों के अनुयायी सिद्धों ने भी अपने चर्यापदों में इस प्रकार के अनेक प्रयोग किए हैं। बौद्ध सिद्धों की इस वर्णन शैली को कुछ दूर तक जैन मुनियों ने भी अपनाया है। 
    नाथ साहित्य के अंतर्गत नाथ कवियों की रचनाओं के अतिरिक्त योग साधना-संबंधी ग्रंथ भी आते हैं, जिनमें ऐसे प्रयोग दीख पड़ते हैं। गुरु गोरखनाथ की ' उलटी चरचाएं ' नाथ कवियों से कहीं अधिक रहस्यमयी है और उनमें से कई एक अंशत: कबीर साहब की  पंक्तियों से भी मिलती हैं ।
    कबीर अपनी उलटवांसियों के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं। उनके नाम पर निर्मित अनेक उलटवांसियां सर्वसाधारण तक में पाई जाती हैं। ये उलटवांसियां बहुधा अटपटी बानियों (वाणियों) के रूप में रची गई रहती हैं। इस कारण इनके गूढ आशय को शीघ्र समझ न पाने वाला इन्हें सुनकर आश्चर्य में अवाक रह जाता है। जब कभी वह इनके शब्दों के पीछे निहित रहस्य को जान पाता है तो उसे अपार आनंद भी मिलता है। कबीर साहब की उपलब्ध रचनाओं के अंतर्गत उनकी ऐसी अनेक उलटवांसियां मिलती हैं, किंतु वे कहीं भी उन्हें 'उलटवांसी' नाम द्वारा अभिहित करते नहीं दिख पड़ते। इनकी रचना करते समय वे इनके विषय में कहीं-कहीं केवल इस प्रकार कहते पाये जाते हैं-

    १. सोई पंडित सो तय ग्याता,
        जो इहि  पदहि बिचारै ।
        कहे कबीर सोई गुरु मेरा,
        आप तिरै  मोहि तारै ।।

    २. कहे कबीर या पद कौं बूझै,
        ताकूं तीन्यूं त्रिभुवन सूझै ।

    ३. कहै कबीर ताहि गुरु करौं,
        जो या पदहि बिचारै ।

    ४. अवधू , सो जोगी गुरु मेरा,
        जो या पद का करै नबेरा ।

    कभी-कभी इनमें निहित अर्थ की ओर संकेत करते हुए वे उनके संबंध में इतना और भी जोड़ देते हैं-

    १. बूझौ  अकथ कहांणी ।

    २. सतगुरु मिलै त पाईये,
        ऐसी अकथ कहांणी ।

    ३. अकथ कहांणी प्रेम की,
        कछु कही न जाई ।

    ४. एक अचंभा देखा रे भाई ।

    ५. एक अचंभा ऐसा भया ।

    ६. कहै  कबीर यहु अकथ कथा है,
        कहतां कही न जाई ।

    ७.अब मैं जांणिबौ रे केवल राइ की कहांणी।

    ८. यहु गुरु ग्यान महो रे।

    ९. ऐसा अद्भुत मेरे गुरु कथ्या,
        मैं रह्या उमेषै ।

    १०.ऐसो अचरजु देखिओ कबीर ।

    इसके सिवाय कभी कभी वे  'अवधू' को संबोधित करते हुए उसके प्रति " ऐसा ग्यान बिचार "  अथवा  " ऐसा ग्यान बिचारी " - जैसे शब्दों द्वारा अनुरोध करते भी जान पड़ते हैं जिससे उक्त रहस्य वहां केवल ज्ञान-
    रूप-सा ही लगता है। कबीर की ऐसी उलट- वांसियां अधिकतर फुटकल पदों के रूप में पायी जाती हैं जिन पर न तो उनके विषय का कोई शीर्षक रहता है और न जिनका कोई सुव्यवस्थित ढंग से वर्गीकरण ही किया गया मिलता है ।

    कबीरदास ने अपने बहुत रहस्यात्मक तथा गंभीर विचारों को उलटवांसियों में ही प्रकट किए हैं। अकथ कहानी उलटवांसियों द्वारा ही कही गई है। इन उलटवांसियों को उन्होंने उल्टावेद कहा है।

    कबीर की आध्यात्मिक उक्तियां हमें उलट- वांसियों के रूप में ही मिलती हैं। इन उक्तियों में एक विशेष प्रकार का अलंकारिक चमत्कार देखने को मिलता है। यह चमत्कार उन उक्तियों की नीरसता और शुद्धता को सर्वथा नष्ट कर देता है और उसमें एक चमत्कारिक सौंदर्य दिखाई देने लगता है। अलंकारिक चमत्कार के साथ ही साथ कबीर की उलटवांसियों में व्यंजना के विविध रूप भी पाये जाते हैं। रूपक और प्रतीकात्मकता के अलंकारों से सजकर जब कबीर की उलटवांसियां साहित्य के क्षेत्र में विचरण करती हैं, तो उनका सौंदर्य देखते ही बनता है।


    कबीर की उलटवांसियों का वर्गीकरण

    डॉ. त्रिगुणायत ने कबीर की उलटवांसियों को तीन वर्गों में विभाजित किया है-

    ( १ ) अलंकार प्रधान
    ( २ ) अद्भुत रस प्रधान
    ( ३ ) प्रतीक प्रधान

    (१) अलंकार प्रधान

    अलंकार प्रधान उलटवांसियों में चमत्कार की ही प्रधानता  रहती है और यह विशेष रूप से विरोध मूलक होती हैं। इनमें विरोध मूलक अलंकार तो पाया ही जाता है। विरोध मूलक अलंकार अतिशयोक्ति का ही एक भाग है । विरोध मूलक अतिशयोक्ति अलंकार  के 11 रूप होते हैं और इनके अनेकों उदाहरण हमें कबीरदास जी की उलवासियों में देखने को मिलते हैं।

    १. आगमि बेलि अकास  फल अण
        व्यावण का दूध ---  असंगति

    २. कमल जो फूले जल्ह बिन--- विभावना

    ३. ठाढ़ा सिंह चरावै गाई  -------
                            विरोध और विशेषोक्ति

    ४. आकासे  मुख औंधा  कुंआ,
        पाताले पनिहारी ------- विषम

    (२) अद्भुत रस प्रधान

    कबीर की बहुत -सी उलटवांसियों में विरोध मूलक अलंकार के साथ अद्भुत रस  का भी समावेश होता है ।जहां प्रतीक और अलंकार गौण हों और कवि घटना ,व्यापार इत्यादि को ही लक्ष्य बनाकर रचना करें वहां अद्भुत रस का संचार समझना चाहिए। कबीर की कविता में इसके उदाहरणों की भी कमी नहीं है। एक उदाहरण देखिए-

    " ऐसा अद्भुत मेरे गुरु कथ्या मैं रहा भेषै।
    मूसा हस्ती सौं लड़ै, कोई बिरला पेखै ।।"


    (३) प्रतीक प्रधान

    कबीर की गूढ़तम भावनाओं और विचार- धाराओं को उनकी प्रतीकात्मक उलट- वांसियों के अंतर्गत छुपा हुआ पाते हैं। कबीर ने अपने बहुत गंभीर एवं रहस्यात्मक  विचारों को प्रतीकात्मक उलटवांसियों में ही प्रकट किया है । जिन प्रतीकात्मक उलट- वांसियों में कबीरदासजी ने रूपक का आश्रय  ले लिया है, वहां उनके विशेष गूढ़ विचारों का प्रकाशन हुआ है। इस प्रकार की उलटवांसियों में कहीं प्रतीक को प्रधानता मिल जाती है और कहीं रूपक को । इसी आधार पर डॉ. गोविंद त्रिगुणायत ने इनके
    " मूलत: रूपक प्रधान और  मूलत: प्रतीक प्रधान " दो भाग कर दिए हैं --

    " बिटिया ने बाप जायो     अथवा
      बांझ का पूत  पिता बिन जाया । "

    कबीर की उलटवांसियों में अनेक पद ऐसे हैं जिनका अर्थ सामान्य पद्धति से नहीं लगाया जा सकता ।साधारण शब्द कोश, व्याकरण और अर्थ ग्रहण करने के साधनों की सहा- यता उनके अभीष्ट अर्थ प्राप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है।" धरती के बरसने से अंबर का भीगना " समुंद्र में आग लगना और नदियों का जलकर कोयला हो जाना "मृतक का हाथ में धनुष्य लेकर खड़ा हो जाना "-

    " नदियां जल कोयला भई,
       समुंदर लागी आग ।
       मंछी  रुख चढ़ गई,
       देख कबीरा आग।।"

    ( समुद्र- ब्रह्म, नदियां- कुप्रवृत्तियां,
      मछली- जीव )

    इत्यादि अनेक  असंभव और विरुद्ध प्रतीत होनेवाली बातों का ऐसे सामान्य रूप में उल्लेख पाया जाता है मानों ये  कबीर की स्वाभाविक भाषा  का अंग रही हों और इनमें उन्हें कुछ भी प्रयत्न न करना पड़ा हो। परंतु इनको पढ़ या सुनकर साधारण पाठक या श्रोता की तो यह स्थिति हो जाती है कि या तो वह भौचक्का होकर अर्थहीन  शून्यावलोकन करने लगता है, अथवा कबीर को असंगत वक्ता समझकर उधर ध्यान देने की आवश्यकता ही नहीं समझता।

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    Written By:

     Dr. Gunjan A. Shah 
     Ph.D. (Hindi)
     Hindi Lecturer (Exp. 20+)
     

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