संत काव्य की प्रमुख विशेषताएं | प्रवृत्तियाँ | Sant Kavya

संत काव्य की प्रमुख विशेषताएं | प्रवृत्तियाँ | Sant Kavya


    संत काव्य | Sant Kavya

    हिंदी साहित्य के भक्ति काल में दो धाराएं प्रवाहित हुई-

    १. सगुण साहित्य

    २. निर्गुण साहित्य

    सगुण और निर्गुण साहित्य सम्बन्धी कुछ विशेष बिंदु

    • सगुण काव्यधारा को दो शाखाओं में विभाजित किया गया राम काव्य धारा तथा कृष्ण काव्य धारा। 
    • निर्गुण काव्य धारा को दो शाखाओं में विभाजित किया गया संत काव्य धारा तथा सूफी काव्य धारा‌। 
    • संत काव्य धारा को ज्ञानमार्गी या ज्ञानाश्रयी शाखा भी कहा जाता है। 
    • आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निर्गुणधारा के संत काव्य का नाम 'निर्गुण ज्ञानाश्रयी  शाखा' दिया है। 
    • आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इसे 'निर्गुण भक्ति साहित्य' कहते हैं । 
    • रामकुमार वर्मा ने संत काव्य नाम दिया है जो अपेक्षाकृत अधिक संगत है।


    संत शब्द का अर्थ

    'संत' शब्द संस्कृत की धातु ' सद् ' से बना है और कई प्रकार से प्रयोग हुआ है (सत्य, वास्तविक, ईमानदार, सही)। इसका मूल अर्थ है 'सत्य जानने वाला' या 'जिसने अंतिम सत्य अनुभव कर लिया हो।'

    'संत' शब्द से आशय उस व्यक्ति से है, जिसने सत परम तत्व का साक्षात्कार कर लिया हो। साधारण रूप में ईश्वरोन्मुख किसी भी सज्जन को और संकुचित रूप में निर्गुणोपासक भक्त को संत कहते हैं।


    परशुराम चतुर्वेदी के मत में -

    " संत शब्द उस व्यक्ति की ओर संकेत करता है, जिसने सतरूपी परमतत्व का अनुभव कर लिया हो ।"

    इस प्रकार जो सत्य का साक्षात्कार कर चुका हो, वही संत है। हिंदी साहित्य में कबीर, दादूदयाल, रैदास, नानक, और सुंदरदास आदि के काव्य को संत काव्य माना जाता है। संतकाव्य परंपरा १२ वीं सदी से आज तक चलती आई है। लेकिन धीरे-धीरे इसका काव्य पिष्टपेषित होने के कारण महत्वहीन होता गया । मध्ययुग की समाप्ति तक अपनी रूढ़िवादिता के कारण इसकी क्रांतिकारी भावना समाप्त हो गई । कबीर इस काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि हैं।


    संत काव्य की प्रमुख विशेषताएं | प्रवृत्तियाँ | Sant Kavya ki Pravritiyan

    संत काव्य में अनेक धार्मिक संप्रदायों के तत्वों का समन्वय है, लेकिन संतो ने धर्म अथवा साधना की शास्त्रीय ढंग से परिभाषा नहीं दी। संत साधु पहले थे और कवि बाद में । संत काव्य की सामान्य  विशेषताएं निम्नलिखित हैं-


    (१) निर्गुण ईश्वर में विश्वास

    संत कवियों ने अपने काव्य में निर्गुण ईश्वर में विश्वास और कुछ सीमा तक सगुण रूप का विरोध किया है। कबीर का कथन है-

    " दशरथ सुत तिहुं लोक बखाना ।

      राम नाम का मरम है आना ।  "


    संत निर्गुण ब्रह्म में विश्वास करते हैं जो घट -घट में वास करता है।  इनके ईश्वर का न तो कोई रंग है, न रूप है, न जाति है ,न कोई आकर है, न वह जन्म लेता है और न ही वह मर सकता है, वह तो अजर -अमर है , आगोचर है ,निराकार है ,निर्गुण है ,शाश्वत है ।सभी वर्णो एवं जातियों के लिए वह निर्गुण ही उपास्य है।

    " निर्गुण राम जपहु रे भाई ?

      अविगत की गति लिखी न जाई ।"


    (२)  बहुदेववाद तथा अवतारवाद का विरोध

    संतो ने बहुदेववाद तथा अवतारवाद की भावना का खंडन किया है। इसका कारण, शंकर मत का प्रभाव तथा तत्कालीन मुसलमान शासकों का एकेश्वरवादी होना था । हिंदू -मुस्लिम एकता के लिए संतों ने एकेश्वरवाद का संदेश सुनाया ।

    कबीर कहते हैं -

    "अक्षर पुरुष इक पेड़ है, निरंजन वाकी डार । 

      त्रिदेवा शाखा भये, पात भया संसार। "

    वस्तुत: संतो की उपासना का लक्ष्य सगुण और निर्गुण दोनों से परे है।  फिर भी सगुन उपासकों की भांति उन्होंने अपने प्रियतम को राम, कृष्ण ,गोविंद, केशव आदि नामों से पुकारा है।


    (३) गुरु का महत्व

    संत काव्य के सभी कवियों ने गुरु के महत्व को प्रतिपादित करते हुए उसे ईश्वर  से भी अधिक महत्व दिया है  क्योंकि ईश्वर तक पहुंचाने वाला गुरु ही है।  गुरु ही ज्ञान के द्वारा ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताता है ।

    कबीर कहते हैं-

    " गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय।

      बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताया ।" 


    संत कवियों का विश्वासहै कि राम की कृपा तभी संभव है जब गुरु की कृपा होती है ।कबीर कहते हैं -

    " गुरु धोबी सिस का कपड़ा, साबुन

      सिरजनहार।

      सूरति शिला पर धोइए निकसे ज्योति

      अपार ।"

    अर्थात् गुरु धोबी के समान है, शिष्य कपड़े के समान है और प्रभु उस साबुन के समान है जिसके प्रयोग से कपड़ा साफ होता है ।इस प्रकार गुरु कृपा के बिना शिष्य में ज्ञान का विकास संभव नहीं  है। 


    नामदेव भी कहते हैं -

    " सुफल जनम मोको गुरु कीना।

       दुख बिसार सुख अंतर दीना ।।

       ज्ञान दान मोको गुरु दीना ।

       राम नाम बिन जीवन हीना ।।


    (४) माया से सावधानता

    संतों ने माया से सावधान रहने का उपदेश दिया है । उनके अनुसार माया भक्ति के मार्ग में   सबसे बड़ी बाधा है। यह माया महा ठगिनी है । काम, क्रोध, लोभ ,मोह ,अहंकार आदि माया के पांच पुत्र हैं जो भक्त की राह  में अवरोध उत्पन्न करते है। यह माया मधुर वाणी बोल कर सभी को 'तिरगुन फांस' में फंसा लेती है। 

    कबीर  माया के विषय में कहते हैं -

    " कबीर माया मोहिनी,

       मोहे जांण-सुजांण ।

       भागां ही छूटे नहीं,

       भरि-भरि मारै बाण । "


    वे माया को डायन की संज्ञा देते हुए कहते हैं-

    " एक डायन मेरे मन में बसे ।

      निस दिन मेरे जीऊ को डसे ।

      इस डायन के लरिका पांच

      निस दिन मोहि नचावे  नाच । "


    (५) नारी के प्रति दृष्टिकोण

    संत नारी को माया का प्रतीक कहते हैं। इन कवियों ने एक ओर नारी की निंदा की है ,तो दूसरी ओर पतिव्रता नारी को अपनी साधना के निकट जानकार उसकी प्रशंसा भी की है‌। कनक और कामिनी को वे‌ बंधन स्वरूप मानते हैं । कबीर के शब्दों में -


    " नारी की झाई परत,अंधा होत  भुजंग।

      कबीरा तिन की कहा गति नित नारी के संग ।। "


    पतिव्रता नारी की तरह साधक की भी अपने प्रिय के प्रति अटूट निष्ठा और अन्यों के प्रति विरक्ति होती है। पतिव्रता नारी की प्रशंसा करते हुए कबीर कहते हैं  -


    "पतिव्रता  मैली भली,कानी कुंचित  कुरूप ।

    पतिव्रता के रूप पर वारों कोटी सरुप।"


    कबीर का यह दृष्टिकोण उदारता का परिचायक है। उनकी दृष्टि में प्रतिव्रता का आदर्श उनके साधना  के निकट पड़ता है । सति और पतिव्रता नारी में एक के प्रति निष्ठावान ,आसक्ति, असिम प्रेम ,साहस और त्याग भावना से वे प्रभावित थे ।


    (६) रूढ़ियों एवं आडंबरों का विरोध

    संत कवियों ने समाज में व्याप्त रूढ़ियों, मिथ्या आडम्बरों तथा अंधविश्वासों का घोर विरोध किया है। उनका लक्ष्य सदा समाज सुधार रहा है उस समय के प्रमुख धर्म हिंदू और इस्लाम थे। इन दोनों धर्मों में अनेक मिथ्या बाह्याचार प्रचलित हो चले थे। संत कवियों ने सब का खंडन किया है। इन्होंने मूर्ति पूजा ,धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा, छापा -तिलक, तीर्थ, व्रत, रोजा, नमाज हजयात्रा आदि बाह्याडम्बरों का डटकर विरोध किया है । कबीरदास हिंदुओं को फटकारते हुए कहते हैं कि यदि पत्थर पूजने से ईश्वर मिलता है, तो मैं पहाड़ की पूजा करने के लिए तैयार हूं।

    " पाथर  पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजू पहार ।।"


    कबीर मुस्लिम धर्म संप्रदाय की आलोचना करते हुए कहते है-

    " कांकर पाथर जोरिकै, मस्जिद लई बनाय।

      ता चढ़ि मुल्ला बांग दे,क्या बहरा हुआ खुदाय।।

    + ‌          +             +            +         ‌    +

      ना जाने तेरा साहब  कैसा है

      मस्जिद भीतर मुल्ला पुकारे,

      क्या  साहब तेरा बहरा  है।


    संत कवियों ने हिंदू और मुसलमानों के बाह्याचारों का ही खंडन नहीं किया , अवधूतों और जैनों की भी खबर ली है ।


    (७) जाति पाति तथा वर्ण व्यवस्था का विरोध

    मध्ययुग कालीन समाज में वर्णभेद तथा  जातिभेद का अधिक प्राबल्य था । संत कवियों ने सामाजिक विषमताओं को दूर करने तथा मानव धर्म की स्थापना हेतु समाज में जाति एवं वर्ण  के नाम पर किए जाने वाले भेदभावों का विरोध किया है । संतों का यह मानना था कि सृष्टि के सभी मनुष्य एक समान है और सभी को समान रुप से ईश्वर भक्ति का अधिकार है।

    " जाति पांति पूछै नहिं कोई,

     हरिको भजै सो हरि का होई।"


    आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मतानुसार-

    " जाति पांति के खंडन के पक्ष में सभी संत थे क्योंकि ये छोटी जाति के थे। कबीर स्वयं जुलाहा थे, रैदास चमार थे। "


    इसके अतिरिक्त संतो ने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिए एक ही सामान्य भक्ति मार्ग की उपासना की थी।"


    (८)  रहस्यवाद

    संतकाव्य में मुख्यतः अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना हुई है, जिसे रहस्यवाद कहा गया है। संतों के रहस्यवाद पर एक ओर शंकर के  अद्वैतवाद का प्रभाव है तो दूसरी और सूफी कवियों की प्रेम- साधना तथा सिद्धों  और नाथों की योग साधना का । संतो ने प्रणय की संयोग तथा वियोग , दोनों ही अवस्थाओं को लिया है ।उनके विरह में मीरा जैसी विरह- तीव्रता है‌ ।कबीर आदि संत- कवियों ने विरहिणी आत्मा की विरह व्यथा की मार्मिक अभिव्यंजना की है। विरहिणी आत्मा का एक चित्र देखिए -

    " बासरि सुख न रैन सुख,

       ना सुख सपने मांह ।

      कबीर बिछुड्या राम सों

      ना सुख  धूप न  छांह ‌।"


    और मिलन की स्थिति में कबीर की आत्मा अपने को अखंड सुहागिन कहती हैं -

    " दुलहिन गावहु मंगलाचार ।

    हम घर आए हो राजा राम भरतार।।"



    (९) अलंकार

    संत कवियों ने अपने काव्य को साहि- त्यिक बनाने की चेष्टा नहीं की। यह बात दूसरी है कि उसमें स्वत: ही अलंकारों की योजना हो गई हो । फिर भी संत काव्य में अलंकार  साध्य न होकर साधन ही है । उपमा, रूपक, दृष्टांत, उत्प्रेक्षा, श्लेष,यमक और  अनुप्रास संतों के विशेष प्रिय अलंकार है। इसके अतिरिक्त  विरोधाभास, विशेषोक्ति, अन्योक्ति ,व्यतिरेक,वक्रोक्ति, समासोक्तिविभावना, अतिशयोक्ति आदि का भी प्रयोग उन्होंने किया है। एक- दो उदाहरण देखिए-


    ( क) पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की  

           जाती ।

           देखत ही छिप जाएगा ज्यों तारा

           प्रभात ।।

                           ( उपमा अलंकार )


    ( ख) नैनन की करि कोठरी पुतली पलंग

           बिछाय  ।

          पलकों की चिक  डारिकै   पिय को

          लिया रिझाया ।।

                                ( रूपक अलंकार)

       

       

    (१०)  रस योजना

    संत कवियों ने अपने काव्य के माध्यम से अपनी अनुभूतियों को जनता तक पहुंचाने का प्रयास किया है ,फलस्वरुप रस की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता 'साधारणीकरण' संत काव्य में विद्यमान है। संतो ने अधिकतर साखियों, सवैयों एवं गेय पदों की रचना की है। कबीरदास ,दादू दयाल और सुंदरदास की अनेक रचनाओं में रस की सम्यक् सृष्टि हुई है। 

    संत काव्य में भक्तिपरकउक्तियों में प्रधान रूप से शांत रस का परिपाक  हुआ है। ब्रह्म की विराट कल्पना के वर्णन में  अद्भुत रस का  अच्छा परिपाक हुआ है । वीर रस का वर्णन 'सूरमा कौ अंग' में हुआ है। व्यंग्य एवं हास्य रस के सुंदर उदाहरण कर्मकांड और परंपराओं की आलोचना में सुलभ है। प्रेतादि के वर्णन तथा शरीर की क्षणभंगुरता के  निरूपण में बीभत्स रस के अच्छे उदाहरण उपलब्ध होते हैं।

    दाम्पत्य प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त भावनाओं में सयोग एवं वियोग श्रृंगार के सुंदर उदाहरण मिलते हैं। रहस्यवाद  के अंतर्गत  श्रृंगार रस का चित्रण है ,जिसमें सयोग की अपेक्षा वियोग पक्ष अधिक प्रबल है।


    "दुलहिन गावहु मंगलाचार ,

      तन रति करि मैं,  मन रति करि हूं ।।

      पंच तत बाराती, रामदेव मोरे पाहुने आए

      मैं जोबन में माती ।। "


    सुंदरदास ने स्त्री के शरीर का बीभत्स चित्रण किया है। संत काव्य में शांत और श्रृंगार रस की प्रधानता है अन्य रस गौण हैं।


    (११) भाषा-शैली

    संत काव्य की भाषा जनसामान्य की भाषा है। वस्तुत: तत्कालीन परिवेश के अनुरूप संतवाणी की रचना मुख्यत: जनता के अशिक्षित, उपेक्षित और पिछड़े हुए वर्गों के लिए हुई थी। अतः संतों की भाषा सरल और सहज है। प्राय: सभी संत कवि निरक्षर थे। इनकी वाणी अधिकतर गेय रही है। और इनकी भाषा का रूप एक मुख से दूसरे मुख जाने में बहुत बदल गया है ।जिस प्रदेश में उनकी वाणी पहुंची उस प्रदेश की भाषा का प्रभाव भी उस पर आ गया। इसके अतिरिक्त संतों की भ्रमण में बहुत रुचि थी इसलिए इसमें विभिन्न प्रांतीय भाषाएं अवधी,ब्रजभाषा,खड़ीबोली, फारसी, पंजाबी, भोजपुरी तथा राज- स्थानी आदि का मिश्रण है। संत कबीर की भाषा को आलोचकों ने 'खिचड़ी भाषा',' संधा भाषा' व 'सघुक्कडी भाषा' कहा है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कबीर को 'वाणी का डिक्टेटर' कहा है ।

    संतकाव्य मुक्त रूप में प्राप्त होता है। संतो के 'सबद' गीतिकाव्य के सभी तत्वों- भावात्मकता ,संगीतात्मकता, संक्षिप्तता, वैयक्तिकता आदि से युक्त है। उपदेशात्मक पदों में माधुर्य के स्थान पर बौद्धिकता अवश्य है। इन्होंने साखी, दोहा और चौपाई शैली का प्रयोग किया है।


    (१२) छंद

    छंद संतो  के लिए साधन है साध्य नहीं। संतों में सुंदर दास के अतिरिक्त प्राय: सभी कवि छंदों के स्वरूप और महत्व से सर्वथा अपरिचित थे। अपनी अनुभूति, ज्ञान तथा परंपरा से प्राप्त तत्व को चिरस्मरणीय तथा प्रेषणीय  बनाने के लिए इन्होंने अपनी भावनाओं को छंदोबद्ध किया। संत कवियों ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति मुख्यत:  'साखी 'और 'सबद' के माध्यम से की है-साखियों  की रचना दोहा छंद में हुई है और 'सबद' से तात्पर्य गेय पदों से हैं। संतो के 'सबद'  राग रागिनियों में गाए जा सकत़े हैं। कबीर ने इनके अतिरिक्त रमैनी का प्रयोग भी किया है । इसके अतिरिक्त चौपाई, कवित्त, सवैया, वसंत,सार,हंसपद आदि छंदों का भी संत काव्य में प्रयोग हुआ है। सुंदरदास सवैया की रचना करने में सिद्धहस्त थे ।


    Written By:

     Dr. Gunjan A. Shah 
     Ph.D. (Hindi)
     Hindi Lecturer (Exp. 20+)
     


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