तुलसीदास का कृतित्व | Tulsidas Ki Kritiyan

तुलसीदास का कृतित्व | Tulsidas Ki Kritiyan

    गोस्वामी तुलसीदास जी के कृतित्व की विस्तृत व्याख्या | तुलसी की कृतियों का संक्षिप्त परिचय | Tulsidas Ka Krititva | Tulsidas Ki Kritiyan 

    तुलसी का कृतित्व अपने आप में पर्याप्त महत्वपूर्ण रहा है। युग और साहित्य के प्रति उनकी देन सदा याद रखने योग्य है। उनके कृतित्व का मूल्य विशेष रूप से धार्मिक, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में उल्लेख- नीय है।

    #Tulsidas Ki Kritiyan


    तुलसीदास का महत्व बताते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं-

    "तुलसीदास का महत्व बताने के लिए विद्वानों ने अनेक प्रकार की तुलनात्मक उक्तियों का सहारा लिया है। नाभादास ने उन्हें 'कलिकाल का वाल्मीकि' कहा था, स्मिथ ने उन्हें मुगल काल का सबसे बड़ा व्यक्ति माना था, जॉर्ज ग्रियर्सन ने इन्हें बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोकनायक कहा था और यह तो बहुत लोगों ने बहुत बार कहा है कि उनकी रामायण भारत की बाइबिल है‌। इन सारी उक्तियों का तात्पर्य यही है कि तुलसीदास असाधारण शक्ति - शाली कवि, लोकनायक और महात्मा थे।"


    तुलसीदास का कृतित्व के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के मत

    तुलसीदास की रचनाओं के संबंध में विभिन्न विद्वानों के विविध मत हैं।

    ( १ ) शिवसिंह सेंगर ने तुलसी के ग्रंथों का उल्लेख करते हुए १८ ग्रंथों के नाम गिनाये हैं।

    ( २ ) जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपने शोध प्रबंध  "Notes on Tulsidas" में 21 ग्रंथों का उल्लेख किया है, लेकिन बाद में उन्होंने ही अपने "एनसायक्लोफीलिया रीलिजन ऑफ ऐयिक्स" में तुलसी ने 12 ग्रंथों की सूची दी है जिसे दो भागों में विभक्त किया गया हैं-


    (क) बड़े ग्रंथ

    १. कवितावली

    २. दोहावली

    ३. कृष्ण गीतावली

    ४. गीतावली

    ५. रामचरितमानस


    (ख) छोटे ग्रंथ

    ६. रामललानहछू

    ७. वैराग्य संदीपिनी

    ८. बरवै रामायण

    ९. जानकी मंगल

    १०.पार्वती मंगल

    ११. रामाज्ञा प्रश्न

    १२. विनय पत्रिका


    ( ३ ) मिश्र बंधु ने "हिंदी नवरत्न" में तुलसी के १२ ग्रंथों को प्रामाणिक माना हैं, जो इस प्रकार हैं-


    १. रामचरितमानस

    २. कवितावली

    ३. गीतावली

    ४. जानकी मंगल

    ५. कृष्ण गीतावली

    ६. हनुमानबाहुक

    ७. हनुमान चालीसा

    ८. रामसलाका

    ९. रामसतसई

    १०. विनयपत्रिका

    ११. कलि -धर्माधर्म- निरूपण

    १२. दोहावली


    मिश्रबंधु ने 'रामाज्ञाप्रश्न' , 'रामललानहछू', 'पार्वतीमंगल', 'वैराग्यसंदीपिनी' और 'बरवै रामायण' आदि को  अप्रामाणिक ग्रंथों में स्थान दिया हैं।


    ( ४ ) काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अनुसार इनके १२ ग्रंथों का उल्लेख मिलता हैं, जो इस प्रकार हैं-

    १. रामचरितमानस

    २. वैराग्य संदीपिनी

    ३. रामलला नहछू

    ४. बरवै रामायण

    ५. पार्वती मंगल

    ६. जानकी मंगल

    ७. रामाज्ञाप्रश्न

    ८. दोहावली

    ९. कवितावली

    १०. गीतावली

    ११. कृष्ण गीतावली

    १२. विनय पत्रिका


    ( ५ ) आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी अपने इतिहास में उपर्युक्त १२ ग्रंथों का उल्लेख किया हैं।


    तुलसीदास की रचनाएं

    काव्य - रूप की दृष्टि से तुलसी रचित प्रामाणिक रचनाओं को तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-

    ( क ) प्रबंध काव्य

           रामचरितमानस

           रामलला नहछू

           पार्वती मंगल

           जानकी मंगल


    ( ख ) गीतिकाव्य

             गीतावली

             कृष्ण गीतावली

             विनयपत्रिका


    ( ग )  मुक्तक काव्य

             वैराग्य संदीपिनी

             बरवै रामायण

             रामाज्ञा प्रश्न

             दोहावली

             कवितावली


    तुलसी की कृतियों का संक्षिप्त परिचय

    तुलसी की कृतियों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है-


    ( १ ) रामचरितमानस

    'रामचरितमानस' तुलसीदास का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। इसका रचनाकाल तुलसी ने संवत् १६३१ दिया है। यह ग्रंथ दोहा-चौपाई शैली में लिखा गया है। इसकी भाषा साहित्यिक अवधी है।' रामचरितमानस' की कथा का आधार वाल्मीकि रामायण ही है, परंतु इसमें कथा- विस्तार, दार्शनिक विचारों तथा भक्ति भावना आदि के लिए अध्यात्म रामायण, गीता, उपनिषद, पुराण आदि का भी तुलसी ने आश्रय लिया है यह रामकथा पर आधारित ग्रंथ है। इसमें कुल सात काण्ड हैं, जो इस प्रकार हैं-

    १. बालकाण्ड

    २. अयोध्याकाण्ड

    ३. अरण्यकाण्ड

    ४. किष्किंधाकाण्ड

    ५. सुंदरकांड

    ६. लंकाकाण्ड

    ७. उत्तरकाण्ड


    तुलसी के राम वाल्मीकि के नर-रूप राम न होकर नारायण रूप हैं। 'रामचरितमानस' की कथावस्तु अत्यंत सुसम्बद्ध, विस्तृत, मार्मिक स्थलों से युक्त एवं आदर्श भावना से ओतप्रोत है। इसके पात्रों के चरित्रांकन में लेखक विशेष सफल रहा है। ' रामचरित- मानस'  के पात्रों की विशिष्टता,स्वाभावि- कता, मनोवैज्ञानिकता  एवं भव्यता पाठक को सहज ही आकृष्ट कर लेती है। 'मानस' के संवाद जैसे परशुराम -लक्ष्मण -संवाद, मंथरा- कैकयी-संवाद संवाद, अंगद- रावण- संवाद आदि संवाद अत्यंत स्वाभाविक, रोचक एवं नाटकीय है । 'मानस' में सभी रसों तथा भावों का प्रसंगानुसार समावेश हुआ है, परंतु इसका अंगी रस शांत है। मानवह्रदय की विभिन्न भावानुभूतियों के चित्रण में तुलसी अत्यंत सफल रहे हैं। 'रामचरितमानस' भावपक्ष की दृष्टि से जितना उदात्त है कलापक्ष की दृष्टि से भी उतना ही भव्य है।

    "कविता करके तुलसी न लसे कविता लसिपा तुलसी की कला" वाली उक्ति 'मानस' को ही सम्मुख रखकर कही गई है।


    ( २ ) रामललानहछू

    'मूल गोसाईं चरित' के आधार पर तुलसी ने इसकी रचना मीथिलापुरी में की थी। इसमें राम का नख-क्षौर वर्णित है । सोरठा छंद में लिखी गई यह रचना राम विवाह के अवसर को प्रस्तुत करती है। कुछ लोगों का कहना है कि इसकी रचना यज्ञोपवित्र अवसर पर की गयी थी। तुलसी की यह प्रारंभिक रचना है, जिसमें तुलसी का मर्यादावाद दिखाई देता है। इसमें लोकशैली और लोगबोली का अच्छा प्रयोग हुआ है। इसमें कुल २०छंद हैं। भाषा के स्तर पर यद्यपि यह एक हलकी-फुलकी रचना है।


    ( ३ ) पार्वती मंगल

    शिव- पार्वती  आख्यान पर आधारित लिखा गया यह एक छोटा- सा खंडकाव्य है।कथा- नक का विकास  सुसंगठित और सौष्ठवपूर्ण है । यह एक ध्यानपात्र विशेषता है कि 'रामचरितमानस' के बालकांड में वर्णित शिव- पार्वती की कथा से भिन्न  कथा (शिव कथा) इसमें वर्णित है। 'रामचरितमानस' की शिव कथा का आधार शिव पुराण है जबकि 'पार्वती मंगल 'का आधार कालिदास कृत 'कुमारसंभव' है । कवि ने स्वयं इसका जन्म संवत १६४२ दिया है। लेकिन तिथि का परिगणन करते हुए डॉ. भगीरथ मिश्र इस रचना का समय संवत् १६४३ माना है।

    'पार्वती मंगल' में मंगल छंद मुख्य है ।

    इसके अतिरिक्त हरिगीतिका छंद है। संक्षेप में पार्वती के जन्म का वर्णन है। पार्वती की तपस्या का निरूपण है विवाह का वर्णन विस्तार से हैं। 'पार्वती मंगल 'में १६४ छंद हैं।


    ( ४ ) जानकी मंगल

    'जानकी मंगल' भी पार्वती मंगल के जैसा ग्रंथ है । जो छंद और भाषा का प्रयोग हमें 'पार्वती मंगल' में मिलता है, वही छंद और भाषा का प्रयोग हमें 'जानकी मंगल' में मिलता है । 'जानकी मंगल' में सीता के विवाह का प्रसंग है । इसमें पुष्पवाटिका प्रसंग नहीं है । परशुराम जी विवाह के बाद आते हैं। 'जानकी मंगल' में लोक संस्कृति और तत्कालीन सामाजिक प्रथाओं, विश्वासों का निरूपण है। 'जानकी मंगल' आकार में 'पार्वती मंगल 'से बड़ा है। जानकी मंगल में २१६ छंद हैं।


    ( ५ ) गीतावली

    यह पदों में लिखा हुआ काव्य है। इसमें तुलसीदास ने रामकथा का गान किया है। इसमें सात कांड तथा ३२८ पद हैं। 'गीतावली' में वर्णित राम- कथा की परिधि 'रामचरितमानस'  की अपेक्षा अधिक व्यापक है। उसमें राम के आविर्भाव से लेकर सीता निर्वासन और लव- कुश के बाल -चरित  तक के विविध प्रसंगों का वर्णन है । यह भाव- भावना प्रधान काव्य है। इसमें  श्रृंगार रस, हास्य रस ,वीर रस और करुण रस की अभिव्यक्ति बड़ी सुंदर हुई हैं।  वात्सल्य रस की छटा देखते ही बनती है।


    ( ६ ) कृष्ण गीतावली

    सूर के पदों की सी आह्लादकता और प्रासंगिकता यहा़ हमें देखने को मिलती है। लेकिन जो सहजता ( स्वाभाविकता )सूर के पद में देखने को मिलती हैं, वह तुलसी में नहीं है ।तुलसी की ब्रजभाषा शब्दकोशी  ब्रजभाषा सी लगती है। ६० गीतों में कवि ने पूर्ण कृष्ण- कथा अत्यंत सुचारू रूप से कही है । कृष्ण की बाल्यकथा एवं गोपी- उद्धव संवाद के प्रसंग कवित्व की दृष्टि से उत्तम बन पड़े हैं।तुलसीदास जी 'श्रीमद्भाग- वत' के प्रभाव में रहे हो ऐसा 'कृष्ण गीतावली' को देखने से लगता है ।


    (७) विनयपत्रिका

    तुलसी के साहित्य में 'रामचरितमानस 'के उपरांत 'विनयपत्रिका' का महत्वपूर्ण स्थान है । यह रचना एक पत्रिका के रूप में प्रस्तुत है, जो राम के सम्मुख हनुमान द्वारा प्रस्तुत की गई है। इसके आरंभ में गणेश ,सूर्य, शंकर ,दुर्गा गंगा ,यमुना व हनुमान जी की स्तुति की गई है। भक्ति की दृष्टि से इस रचना का महत्व अत्यधिक है । कवि के भक्ति, ज्ञान ,वैराग्य तथा संसार की असारता आदि से संबंधित उद्गार अत्यंत मार्मिक हैं। यह रचना ब्रजभाषा में है। इसमें कवि का पांडित्य, वाक् -चातुर्य तथा उक्ति-वैचित्र्य सभी कुछ देखने को मिलता है।



    ( ८ ) वैराग्य संदीपिनी

    यह कवि की आरंभिक रचना प्रतीत होती हैं। यह रचना चार चरणों में विभक्त है।

    (क) मंगलाचरण

    (ख) संत सुहावर्णन

    (ग) संत महिमा

    (घ) शांति वर्णन

    इसमें सदाचार, सत्संग, वैराग्य आदि के द्वारा भक्ति भाव को प्राप्त करने का प्रेरणा- दायी स्वर है । वैराग्य संदीपिनी में ६२ छंद हैं। इसमें दोहा, चौपाई और सोरठा छंदों का प्रयोग है। यह कवि की उस समय की रचना प्रतीत होती है जब उनका झुकाव संतमत की और था। इसमें राम- महिमा, ज्ञान-वैराग्य तथा संत -स्वभाव आदि की चर्चा है। इसमें से कुछ दोहे 'दोहावली' में ज्यों के त्यों मिलते हैं। लगता है कि तुलसीदास ने इस रचना को साधु और सन्यासियों के लिए लिखा था।


    ( ९ ) बरवै रामायण

    यह स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है, बल्कि समय-समय पर लिखे गए बरवै छंदों का संकलन है। बरवै छंद में तुलसीदास ने एक बहुत ही छोटी- सी रामायण लिखी है जिसमें कुल मिलाकर ९३ सर्ग है। इसमें ६९ बरवै छंदों में राम की कथा वर्णित है। इसमें सीता और राम के प्रगाढ़ प्रेम का वर्णन है। राम में सौंदर्य के साथ-साथ शील और शक्ति भी है। सीता के सौंदर्य ,राम के चरित्र ,सीता का विरह वर्णन आदि इसकी मुख्य विशेषताएं है। कविता अलंकारमयी है ।


    ( १० ) रामाज्ञाप्रश्न

    इसमें सात सर्ग हैं। प्रत्येक सर्ग में सात-सात दोहों के सात सप्तक हैं । कुल मिलाकर इसमें ३४३ दोहे हैं। 'रामाज्ञाप्रश्न 'के सातवें सर्ग के सातवें सप्तक के तीसरे दोहे में रचनाकाल का संकेत मिलता है। जिसके आधार पर हम कह सकते है कि 'रामाज्ञा- प्रश्न' की रचना तुलसी ने संवत् १६५५ जेठ सुधि ३० रविवार को की थी । ज्योतिष से संबंधित इस ग्रंथ में वाल्मीकि रामायण का प्रभाव ज्यादा दिखाई देता है। इसमें राम-कथा के बहाने शुभाशुभ शकुनों का विचार किया गया है । इसमें दिन ( वार ) के दृष्टि- कोण से प्रमुख -प्रमुख देवताओं की स्तुति- पूजा की बात कही गयी है । राजा दशरथ की रानियां यज्ञ-चरु प्राप्त करती हैं। कथा यहीं से प्रारंभ होती है । १४ वर्ष बाद राम का राज्याभिषेक अयोध्या में होता है, तब प्रजा को सच्चा सुख और आनंद प्राप्त होता है। यह रचना कवित्तपूर्ण न होकर घटनाओं के गुण संकेतों से संबंधित है।


    ( ११ ) दोहावली

    'दोहावली 'कथ्य व शिल्प दोनों ही दृष्टियों से मुक्तक परंपरा की एक अनूठी कृति है। 'दोहावली 'की रचना में तुलसी को पूरे  बीस साल लगे थे । रुद्रबीसी का उल्लेख इसमें मिलता है । इस आधार पर यह रचना संवत् १६५६ से लेकर संवत् १६७६ तक की होने की संभावना है। खास करके तुलसी की नीति विषयक अवधारणा  ( सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक ) वाले दोहे उपलब्ध होते हैं, जिनमें अद्भुत चमत्कार है। इसके अतिरिक्त  भक्ति, राम- महिमा तथा नाम -माहात्म्य विषयक दोहे हैं। इसमें ५७३ दोहे हैं। तुलसी ने भक्ति का सबसे बड़ा आदर्श चातक पक्षी को माना है-

    'एक आस विश्वास हित चातक तुलसीदास।'

    ' दोहावली ' में इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि तुलसी के समय में जो प्रजा में  अनीतिपूर्ण व्यवहार शासकों की ओर से किए जाते थे । उनके संदर्भ में राज्यादर्श क्या हो सकते है ? इन तमाम बातों का सांकेतिक उल्लेख भी मिलता है।


    ( १२ ) कवितावली

    'कवितावली' में तुलसी के कवित्त, सवैया और छंदों का संकलन हैं। यह मुक्तक काव्य रचना है। तुलसीदास ने इन छंदों की रचना भिन्न-भिन्न समय में की थी लेकिन बाद में इन छंदों का व्यवस्थापन इस रूप में किया गया कि जैसे लगता हैं ' कवितावली' एक प्रबंध रचना है। 'कवितावली' में रामायण की कथा सात कांडों में कही गई हैं, जो इस प्रकार हैं-

    १. बालकाण्ड

    २. अयोध्याकाण्ड

    ३. अरण्यकाण्ड

    ४. किष्किन्धाकाण्ड

    ५. सुंदरकाण्ड

    ६. लंकाकाण्ड

    ७. उत्तरकाण्ड

    इसमें किष्किंधाकाण्ड और अरण्यकाण्ड में केवल एक -एक पद हैं। तुलसी की आत्म- चरितात्मक उक्तियों की दृष्टिसे 'कवितावली' का स्थान अन्यतम है। उसके अनेक पद्यों में उन्होंने अपने बचपन से लेकर अंतिम समय तक की जीवन स्थितियों पर यत्किंचित् प्रकाश डाला है। इसमें किया गया कलियुग- वर्णन और उसके व्याज से युगीन  परिस्थितियों का निदर्शन विशद एवं चिताभिभावी है। कवितावली को पढ़ने से लगता है कि कवि ने अपने समय की महामारी, रुद्रबीसी, मीन की समीचरी  का जो साक्षांत अनुभव किया था उसका वर्णन भी किया है।

    'कवितावली' नौं रसों का रसायन है। प्रारंभ में राम का बाल निरूपण देखते ही बनता है। तुलसीदास की रचनाओं के संक्षिप्त परिचय के उपरांत हम कह सकते हैं कि तुलसीदास का अपने युग की सभी काव्य- शैलियों पर अधिकार था और उन्होंने सभी साहित्यिक शैलियों में सफलतापूर्वक काव्य रचना की है।


    आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने तुलसी के दस काव्य -रूपों की गणना की है-

    ( १ ) दोहा- चौपाई वाले चरित काव्य

    ( २ ) कवित्त- सवैया

    ( ३ ) दोहों में अध्यात्म और नीति के उददेश

    ( ४ ) बरवैछंद

    ( ५ ) सोहर छंद

    ( ६ ) विनय के पद

    ( ७ ) लीला के पद

    ( ८ ) वीर -काव्यों की छप्पय- पद्धति

    ( ९ ) दोहों में सगुन विचार

    ( १० ) मंगल काव्य


    उपसंहार

    इस प्रकार तुलसीदास ने मुक्तक,गीतिमुक्तक और प्रबंध -काव्य में समान अधिकार दिखाया है। तुलसीदास मध्ययुग के महान व्यक्ति थे। जीवन की वास्तविकताओं का विष पीकर र उन्होंने अपने 'रामचरितमानस' द्वारा अमृत की धारा बहाई। उनकी वाणी में सर्वत्र आशा और विश्वास था; उनकी दृष्टि सारग्रहिणी थी और उनकी बुद्धि समन्वय भावना  को लेकर आई थी। तुलसी का व्यक्तित्व विराट था और उनका काव्य भी विराट है।


    तुलसीदास के व्यक्तित्व के विषय में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं-

    "तुलसी का व्यक्तित्व उनके ग्रंथों में बहुत स्पष्ट होकर प्रकट हुआ है। अत्यंत विनम्र भाव, अनुभूति के साथ अपने आराध्य पर अटूट विश्वास और इतनी अखण्ड आस्था संसार के इतिहास में दुर्लभ है।"  


    Written By:

     Dr. Gunjan A. Shah 
     Ph.D. (Hindi)
     Hindi Lecturer (Exp. 20+)
      

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