तुलसीदास

'रामचरितमानस' के संदर्भ में तुलसी के काव्य का प्रकृति-चित्रण

तुलसी के साहित्य में प्रकृति सौंदर्य | रामचरितमानस में पर्यावरणीय सम्पन्नता | तुलसी के रामचरित मानस में प्रकृति चित्रण | तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस में प्रकृति एवं पर्यावरण

#तुलसी के काव्य का प्रकृति-चित्रण


गोस्वामी तुलसीदास मूलत: भक्त कवि थे। अत: प्रकृति को उन्होंने भक्ति के संदर्भ में ही विशेष तौर पर देखा है ,फिर भी प्रबंध रचना की दृष्टि से गोस्वामी तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' में प्रकृति के विविध रूपों का चित्रण किया है। ये प्रकृति चित्रण मोटे तौर पर हमें निम्न रूपों में दिखाई देता हैं-

(१) प्रकृति का उद्दीपन स्वरूप

(२) प्रकृति का उपदेशात्मक रूप

(३) आलंकारिक प्रकृति चित्रण

(४) प्रकृति का आलंबन रूप


( १ ) प्रकृति का उद्दीपन स्वरूप

तुलसीदास ने संयोग और वियोग के निरूपण में प्रकृति को माध्यम के रूप में चुना है । अर्थात् प्रकृति के माध्यम से उन्होंने संयोग और वियोग के चित्र उद्घाटित किये है। उदाहरण के तौर पर जनक वाटिका प्रसंग में राम और सीता के मिलन से संयोगात्मक प्रकृति का स्वरूप अत्यंत अनूठा बन पड़ा है। 

जनक वाटिका का प्रकृति वर्णन करते-करते तुलसी सीता के अप्रतिम सौंदर्य की तुलना करने लगते है तो उनकी दृष्टि में प्रकृति भी फीकी नजर आने लगती है। इसी तरह 'रामचरितमानस' में सीता हरण के प्रसंग में राम का विरह रूप तुलसीदास ने प्रकृति के माध्यम से ही निरूपित किया है। एक ओर जहां राम शक्ति और सौंदर्य के प्रतिरूप है वहां तुलसी ने संवेदना के स्तर पर राम को प्रलाभ करते हुए दिखा दिया है। वे पेड़-पौंधे ,पशु -पक्षी सभी से सीता का पता पूछने लगते हैं-

" हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी ।

  तुम्ह देखी सीता मृगनैनी ।।"


आगे चलकर इसी भाव के विस्तार में तुलसी कहते हैं -

" नारी सहित सब खग मृग बंदा

  मानहुं मोरि करत है निंदा । "


कहने की आवश्यकता नहीं कि तुलसी के काव्य में प्रकृति का उद्दीपन रूप सटीक रूप से चित्रित हुआ है ।प्रकृति को भूमिका बना- कर कवि ने पात्रों की मानसिक दशा का भी वर्णन किया है। राजा दशरथ की मानसिक स्थिति का वर्णन करते हुए तुलसीदास कहते हैं-

" पीपर पात सरिस मन डोला ।"


अर्थात् राजा दशरथ का मन पीपल के पत्ते की तरह कांप उठा ।पीपल का पत्ता हवा में जिस तरह कांपता  है वैसे ही राजा दशरथ का मन भी कैकयी के शब्द प्रहारों से कैसे कांप उठता  है इसका यथार्थ वर्णन कवि ने किया है‌। 

प्रकृति को कवि ने कहीं-कहीं सांकेतिक रूप भी प्रदान किया है। खासकर तुलसीदास ने वर्षाऋतु के वर्णन में अपनी विशेष रुचि प्रदर्शित की है। जो वर्षाऋतु संयोगावस्था में आनंद और उल्लास पैदा करती है वहीं वियोगावस्था में हृदय में  कसक पैदा करती है। सीता के वियोग में गरजते हुए बादलों को देखकर राम का मन कसक उठता है-

" घन घमण्ड नभ गरजत घोरा,

   प्रियाहीन डरपत मन मोरा ।"


सांकेतिक भाव यह है कि घन रूपी घमंड  वाले बादल आकाश में गरज रहे हैं, ऐसी स्थिति में अकेली सीता पर क्या गुजर रही होगी यह सोचकर राम का मन भयभीत हो उठता है।

तुलसीदास ने राम और सीता के वियोग निरूपण में प्रकृति का भरपूर प्रयोग किया है प्रकृति के बड़े ही संवेदना पूर्ण चित्र प्रस्तुत किए हैं। इतना होने पर भी हमें यह तो मानना ही पड़ेगा कि प्रकृति का उद्दीपन स्वरूप जो तुलसी की कलम से निरूपित हुआ है वह परंपरागत है । उसमें प्राय: मौलिकता का अभाव है लेकिन इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कवि ने कहीं भी अतिश्योक्तिपूर्ण या भड़कीले चित्रों का अंकन नहीं किया है। कवि ने सीधी -सच्ची बातों को प्रकृति के सीधे- सादे चित्रों के माध्यम से व्यक्त कर दिया है ।


तुलसीदास की भक्ति भावना | Tulsi Ki Bhakti Bhavna

आइए तुलसी की भक्ति-भावना पर प्रकाश डालते हैं-

भक्ति आंदोलन का युग

तुलसी का युग भक्ति-आंदोलनों का युग था। शताब्दियों पूर्व भक्ति का जो प्रवाह दक्षिण भारत से चल रहा था वह धीरे-धीरे संपूर्ण भारत में फैल गया। उसके दो अन्य- तम् प्रचारक- रामानन्द और वल्लभाचार्य हुए। तुलसी के समय में सारा देश  विभिन्न प्रकार की भक्तिधाराओं में डूबा हुआ था। असंख्य मंदिर, मठ, अखाड़े आदि उनके केंद्र थे । काशी से राम-भक्ति का और वृंदावन से कृष्ण-भक्ति का प्रसार हुआ, जिससे संपूर्ण उत्तर भारत आंदोलित हो गया। इस आंदोलन को लोगव्यापी बनाने में भक्त कवियों  ने विशेष महत्वपूर्ण योगदान दिया।

#Tulsi Ki Bhakti Bhavna

सृजनीय के स्वरूप, भक्ति साधना आदि की दृष्टि से भक्ति धारा की दो धाराएं थीं -

निर्गुण भक्ति धारा और सगुण भक्ति धारा। एक में निर्गुण निराकार ईश्वर की भक्ति पर बल दिया गया और दूसरी में सगुण साकार भगवान की भक्ति पर।


रामानंद द्वारा प्रवर्तित राम भक्ति धारा के दो रूप थे- निर्गुण रामभक्ति और सगुन राम भक्ति। रामानंद के शिष्य कबीर ने निर्गुण भक्ति का प्रचार किया। उन निर्गुण संतो ने वर्ण- धर्म, वेद शास्त्र , अवतारवाद आदि का का खण्डन किया।


आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं-

"लोक- मर्यादा का उल्लंघन, समाज की व्यवस्था का तिरस्कार, अनाधिकार चर्चा, भक्ति और साधुता का मिथ्या दंभ, मूर्खता छिपाने के लिए वेद शास्त्र की निंदा, ये सब बातें ऐसी थीं जिनसे गोस्वामीजी की अंत- रात्मा बहुत व्यथित हुई ।"


निर्गुण- निराकार राम से जनता का कल्याण नहीं हो सकता था। अतः तुलसी ने भक्तों की पुकार पर अवतीर्ण होकर अधम असुरों का संहार करनेवाले लोक रक्षक राम की भक्ति का उपस्थापन किया । मर्यादापुरुषो- त्तम और लोक धर्म -संस्थापक राम का रंजनकारी चित्र अंकित करके सामाजिक उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त किया । सगुण राम- भक्ति की भी दो विधाएं थीं- माधुर्य विशिष्ट और मर्यादा विशिष्ट। कांत-कांता -भाव की माधुर्य विशिष्ट रसिक -भक्ति श्रृंगारिकता से ओतप्रोत थी । वह तुलसी की मनोवृत्ति  के प्रतिकूल थी । वह समाज का उन्नयन नहीं कर सकती थी।इसलिए उन्होंने सेव्य- सेवक भाव की मर्यादावादी भक्ति का  प्रतिपादन किया ।


गोस्वामी तुलसीदास की भक्ति पद्धति

भक्त कवि तुलसीदास भक्ति साहित्य के क्षेत्र में कलानिधि चंद्रमावत रामामृत की धारा को प्रवाहित कर गए, जिसको पीकर जनता आज तक आभारी है और युग-युग तक रहेगी। उन्होंने भक्त-भ्रमरों के लिये भाव-कलिकाओं द्वारा भक्ति -पराग को नि:सृत किया, जिसका पानकर जनता आज तक अपने सौभाग्य क्षणों की प्रशंसा करती है। उन्होंने अपने साहित्य के मंथन द्वारा 'रामचरित चिंतामणि ' का पुनरुद्धार किया और रामत्व का मंत्र दिया ।


'विनयपत्रिका' का काव्य सौष्ठव | 'विनयपत्रिका' के भावपक्ष तथा कलापक्ष

# 'विनयपत्रिका' के भावपक्ष तथा कलापक्ष

'विनयपत्रिका' भक्ति रस का असाधारण काव्य है। दार्शनिक और साहित्यिक दोनों दृष्टियों से यह तुलसी की बहुत ही प्रौढ़ एवं उत्कृष्ट कृति है। 'विनय काव्य' की दृष्टि से यह अप्रतिम है। अतः इसमें उनके काव्य वैभव का ”चरमोत्कर्ष" उपलब्ध होना सहज स्वाभाविक प्रतीत होता है। यह कृति जहां भाव पक्ष की दृष्टि से अत्यधिक रमणीय है वहीं इसका कला पक्ष भी पर्याप्त परिष्कृत और मनोहारी है। अब हम इसके भाव- सौंदर्य पर विचार करेंगे।


'विनयपत्रिका' के भावपक्ष तथा कलापक्ष

'विनयपत्रिका' का भाव पक्ष

'रामचरितमानस' से लेकर 'बरवैरामायण' तक सभी कृतियों की भावाभिव्यक्ति का प्रभाव 'विनयपत्रिका' के भावों पर कहीं प्रत्यक्ष रूप में और कहीं अप्रत्यक्ष रूप में पाया जाता हैं।


( १ ) रस-भाव व्यंजना

'विनयपत्रिका 'का मुख्य तथा प्रधान रस भक्ति रस है। कुछ आलोचक की धारणा इससे भिन्न है ।


पंडित चंद्रबली पांडे का कथन है कि-

"वह वास्तव में शांत रस का ही ग्रंथ है, उसमें सभी रस जहां-तहां दिखाई दे जाते हैं, किंतु जो भाव आदि से अंत तक बना रहता है वह निर्वेद ही है, विनय में निर्वेद का राज्य है।"

कुछ आलोचकों ने 'विनयपत्रिका' में भक्ति रस का परिपाक मानते हुए भी उसके कतिपय भक्तिरस -व्यंजक पदों को शांत रस के उदाहरण- रूप में उद्धृत किया है, 

जैसे-

"मन! पछितेहै अवसर बीते।

  दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु,

  करम वचन अरु ही ते ।"

यहां भी ' निर्वेद ' भक्ति का पोषक है। अत: पूरे पद का व्यंग्य शांत नहीं, भक्ति रस है।


'विनयपत्रिका' में एकाध स्थलों पर शांत रस की अभिव्यक्ति मानी जा सकती है-


" केसव ! कहि न जाइ का कहिये

  देखत तव रचना विचित्र हरि!

  समुझि मनहिं मन रहिये ।।

+         +        +         +          +

  कोउ कह सत्य, झूठ कह कोउ,

  जुगल प्रबल कोउ मानै ।

  तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम,

  सो आपन पहिचानौ ।।"


यहां भी यह तर्क किया जा सकता है कि तुलसी का प्रतिपाद्य भक्ति है ,वह विवेक संयुत है ।


एकाध पदों को शांतरसात्मक मान लेने से 'विनयपत्रिका' के भक्त्यात्मक (भक्तिपरक)  स्वरूप में कुछ अंतर नहीं पड़ता। यह तो विनय की ' पत्रिका ' है, आद्योपांत भक्ति से ओतप्रोत है। आश्रय स्वयं तुलसीदास हैं। आरंभिक पदों में गणेश ,सूर्य ,शिव आदि का आलंबन रूप में चित्रण किया गया है किंतु उनसे भी रामभक्ति की ही याचना की गयी है ।वे साधन है। ' विनयपत्रिका' के आलंबन राम ही हैं। आलम्बन राम के सौंदर्य अंकन को 'विनयपत्रिका' के अनुपयुक्त समझकर तुलसी ने उनके दीन- उद्धारक, करुणामय, शोकसंतापहारी ,पापनाशक, शरणागतपालक और भक्तवत्सल रूप पर ही विशेष ध्यान दिया है-


" दीन उद्घारण रघुवर्य या करुणा- भवन,

   शमन- संताप , पापोघहारी ।"


" अखिल -संसार- उपकार- कारण,

    सदयहृदय, तपनिरत, प्रणतानुकूल ।"


जहां राम का रूप चित्रण किया गया है वहां भक्ति की दृष्टि से ही-


" श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवमय

   दारुणम् ।

   नवकंज -लोचन, कंज-मुख, कर-कंज,    

   पद- कंजारुणं ।।"


यह पद 'विनयपत्रिका' के कितने ही पाठकों को आनंदविभोर कर देता है ।


विनय के पदों में भक्ति रस के उपचायक  संचारी भावों की व्यंजना अत्यंत हृदय स्पर्शी है । 'विनयपत्रिका' के भक्तिरस का प्राण- तत्व -दैन्य निवेदन है । दैन्य भाव के  कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं-


  " तू दयालु, दीन हौं, तू दानि , हौं भिखारी।

   हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप पुंज हारी ।।"


  "ऐसो को उदार जग माहीं।

  बिनु सेवा जो द्रवै दीनपर राम सरिस कोउ

  नाहीं।।"


दैन्य- निरूपक पदों में कवि ने अपने निर- हंकार हृदय को निश्चल भाव से खोलकर रख दिया है । उसकी हार्दिक अभिव्यंजना में सहृदय मात्र के चित्र का प्रतिबिंब झलकता है ।


गीतिकाव्य के तत्वों के आधार पर 'विनय पत्रिका' का मूल्यांकन

गीतिकाव्य क्या है? | गीतिकाव्य की परिभाषा | गीतिकाव्य के तत्व | विनय पत्रिका का तात्विक (विश्लेषण & मूल्यांकन) | Gitikavya | Vinay Patrika | Gitikavya Ke Adhar Par Vinay Patrika Ka Tatvik Mulyankan

# 'विनय पत्रिका' का मूल्यांकन

हिंदी में 'गीत' या 'प्रगीत' शब्द का व्यवहार अंग्रेजी के lyric के अनुवाद के रूप में प्रचलित है।

हडसन के अनुसार-

"लिरिक मूलत: वाद्ययंत्र पर गायी जाने वाली कविता है।" 

महादेवी वर्मा ने 'गीत 'को परिभाषित करते हुए लिखा है-

"सुख - दु:ख की भावावेशमयी अवस्था का विशेष गिने-चुने शब्दों में स्वर- साधना के उपयुक्त चित्रण कर देना ही गीत है।"

गीत यदि दूसरे का इतिहास न कहकर वैयक्तिक सुख-दु:ख ध्वनित कर सके, तो उसकी मार्मिकता विस्मय की वस्तु बन जाती है, इसमें संदेह नहीं।"

'विनयपत्रिका' तुलसी की एक श्रेष्ठ, भाव - पूर्ण, मुक्तक काव्य कृति है। इस काव्य में उन्होंने 'पद' की शैली का प्रयोग किया है।

मध्ययुगीन हिंदी साहित्य में इस शैली का प्रयोग कई कवियों ने किया है‌। अष्टछाप के सभी कवियों की रचनाएं पद शैली में ही मिलती है। सूरदास के काव्य में इसका चरमोत्कर्ष दिखाई देता है। जैसे-


तुलसीदास की काव्य कला | Tulsi Ki Kavya Kala

गोस्वामी तुलसीदास भक्ति के क्षेत्र में जितने महान थे उतने ही कविता के क्षेत्र में भी ।

यद्यपि तुलसी के काव्य-सृजन का प्रधान उद्देश्य भक्ति-प्रतिपादन एवं ' रामचरित-मानस' का गायन है, जिसमें उनकी सफलता विस्मयकारी है, तथापि कला-पक्ष की दृष्टि से भी, वे सफलता प्राप्त करने में सक्षम सिद्ध हुए हैं । अनुभूति पक्ष की दृष्टि से संसार साहित्य का कोई महाकवि तुलसीदास से आगे नहीं है, किंतु तुलसी का अभिव्यक्ति-पक्ष ( कलापक्ष ) भी विलक्षण है जो व्यास, शेक्सपीयर से भी अधिक शब्द-संपन्न एवं अधिक अलंकृत है, जिसमें कविता की अधिकतम् विधाओं के दर्शन होते हैं। अवधी, संस्कृतनिष्ठ अवधी, ब्रज भाषा, संस्कृतनिष्ठ ब्रजभाषा, संस्कृत और भोजपुरी तक तुलसी का अभिव्यक्ति -लोकअतुलनीय है । 

#Tulsi Ki Kavya Kala

तुलसी का अलंकार सामर्थ्य इतना सहज और भाव संपन्न है कि अलंकारवादी- चमत्कारवादी तक उनके पीछे पड़ जाते हैं। सूर केवल ब्रजभाषा का प्रयोग करते हैं, जायसी केवल अवधी का, जबकि तुलसी का दोनों पर समान अधिकार है। तुलसी कला के पीछे नहीं दौड़े, कला उनके  पीछे दौड़ी है।


' हरिऔध ' के शब्दों में-

  " कविता करके तुलसी न लसे

    कविता लसी या तुलसी की कला ।"


( १ ) तुलसी की अतुलनीय भाषा - सामर्थ्य

संसार- साहित्य में तुलसी के भाषा- सामर्थ्य की कोई तुलना नहीं, अवधी एवं संस्कृत निष्ठ अवधी, ब्रजभाषा एवं संस्कृत निष्ठ ब्रजभाषा, संस्कृत एवं भोजपुरी का प्रसार अतुलनीय है। विश्व साहित्य के सीमांत शेक्सपीयर तक ने १३ हजार शब्दों का प्रयोग किया है, जो विलक्षण है, किंतु तुलसी- दास ने १६ हजार शब्दों का प्रयोग किया है। रसानुरूप भाषा के विलक्षण प्रयोग की दृष्टि से तुलसी की समता वाल्मीकि, व्यास , कालिदास , होमर, शेक्सपीयर जैसे महाकवि तक नहीं कर सकते ।


अवधी - ब्रजभाषा

तुलसीदास का शब्द- शिल्प अनूठा है। उन्होंने अपने ग्रंथों में सामान्यतः दो भाषाओं का प्रयोग किया है- अवधी और ब्रजभाषा। दोनों पर उनका समान अधिकार है। 'रामचरितमानस ' अवधी की प्रतिनिधि रचना है, और 'विनयपत्रिका' तथा 'कवितावली' ब्रजभाषा की।

ब्रजभाषा में 'हौं' शब्द 'मैं ' के अर्थ में प्रयुक्त होता है । 'कवितावली' में भी अनेक स्थानों पर ' हौं ' शब्द 'मैं' के अर्थ में आया है। 

जैसे-

" बरु मारिए मोहिं, बिना पग धोए,

  हौं नाथ न नाव चढाइहौं जू । "

' रामचरितमानस 'में भी ' सांवरो',  'को', 'हौं'  ,'बेरो' आदि ब्रजी के प्रयोग मिल जाते हैं।


ब्रजभाषा में मेरो, तेरो , हमारो ,तिहारो का प्रयोग भी  पारस्परिक व्यवहार के लिए बहुत होता है।इसका प्रयोग भी 'कवितावली' में हुआ है।

 जैसे-

"जनक को सिया को  हमारो तेरो तुलसी को"।       

ब्रजभाषा की कृतियों में ' लुटैया ', ' मंह ', ' मैं ', ' तोर मोर ', 'नाऊं गाऊं' आदि अवधी प्रयोगों  की बहुलता पाई जाती है।


'कवितावली' में भी अवधी का स्वरूप  विद्यमान है। अवधी के अनेक शब्दों का प्रयोग 'कवितावली' में मिलता है। अवधी में " में " के लिए मांह, माहीं, मंह आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है। 

एक उदाहरण देखिए-

" दूलह श्री रघुनाथ बने, 

   दूलही सिय सुंदर मंदिर मांही ।"


कुछ और उदाहरण देखिए-

घालि  ( घलुआ ), घारि  ( समूह- सेना ), से ( वे ), अकनि ( सुनकर ), अछत( रहते), पंवारो ( कीर्ति ) आदि ।


तुलसीदास का कृतित्व | Tulsidas Ki Kritiyan

गोस्वामी तुलसीदास जी के कृतित्व की विस्तृत व्याख्या | तुलसी की कृतियों का संक्षिप्त परिचय | Tulsidas Ka Krititva | Tulsidas Ki Kritiyan 

तुलसी का कृतित्व अपने आप में पर्याप्त महत्वपूर्ण रहा है। युग और साहित्य के प्रति उनकी देन सदा याद रखने योग्य है। उनके कृतित्व का मूल्य विशेष रूप से धार्मिक, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में उल्लेख- नीय है।

#Tulsidas Ki Kritiyan


तुलसीदास का महत्व बताते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं-

"तुलसीदास का महत्व बताने के लिए विद्वानों ने अनेक प्रकार की तुलनात्मक उक्तियों का सहारा लिया है। नाभादास ने उन्हें 'कलिकाल का वाल्मीकि' कहा था, स्मिथ ने उन्हें मुगल काल का सबसे बड़ा व्यक्ति माना था, जॉर्ज ग्रियर्सन ने इन्हें बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोकनायक कहा था और यह तो बहुत लोगों ने बहुत बार कहा है कि उनकी रामायण भारत की बाइबिल है‌। इन सारी उक्तियों का तात्पर्य यही है कि तुलसीदास असाधारण शक्ति - शाली कवि, लोकनायक और महात्मा थे।"


तुलसीदास का कृतित्व के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के मत

तुलसीदास की रचनाओं के संबंध में विभिन्न विद्वानों के विविध मत हैं।

( १ ) शिवसिंह सेंगर ने तुलसी के ग्रंथों का उल्लेख करते हुए १८ ग्रंथों के नाम गिनाये हैं।

( २ ) जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपने शोध प्रबंध  "Notes on Tulsidas" में 21 ग्रंथों का उल्लेख किया है, लेकिन बाद में उन्होंने ही अपने "एनसायक्लोफीलिया रीलिजन ऑफ ऐयिक्स" में तुलसी ने 12 ग्रंथों की सूची दी है जिसे दो भागों में विभक्त किया गया हैं-


कवितावली का काव्य सौष्ठव | Kavitavali Ke Kavya Saushthav Ki Vivechna

कवितावली के काव्य सौष्ठव पर प्रकाश डालिए | तुलसीदास जी के काव्य सौष्ठव की विवेचना कीजिए | Kavitavali Ke Kavya Saushthav Par Prakash | vivechna

#Kavitavali Ke Kavya Saushthav Ki Vivechna

'कवितावली' की कवित्व गरिमा निर्विवाद है। उसमें रस, ध्वनि,गुण- वृत्ति ,अलंकार- विधान ,भाषा ,छंद और अन्तर्वृत्ति निरूपण की सर्वतोमुखी रमणीयता है। औचित्य का भी प्राय: सर्वत्र निर्वाह हुआ है। मानव के सहज भावों और भक्ति दर्शन के उन्नत विचारों की शक्तिमयी भाषा में प्रभावशाली व्यंजना की गयी है। भाव और कला दोनों ही दृष्टियों से महात्मा तुलसीदास जी की कवितावली उत्कृष्ट कोटि की रचना है । यहां हम 'कवितावली' के भाव तथा कला दोनों ही पक्षों का विशद्ता से निरूपण करेंगे ।


भाव पक्ष

'कवितावली' के भाव पक्ष की समालोचना करते समय सबसे पहले हम उसकी रस योजना पर विचार करेंगे ।


( १ ) रस योजना

रसिकशिरोमणि  गोस्वामी तुलसीदास ने नव रसों की मंदाकिनी अपने काव्य में प्रवाहित की है ।तुलसी की रस-व्यंजना और भाव- व्यंजना 'कवितावली 'में सुंदर बन पड़ी है। यथा स्थान पर सभी रसों और अधिकांश भावों का दिग्दर्शन 'कवितावली' में मिलेगा। यह कथन अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं है कि  तुलसी को रस -सिद्ध कवि सिद्ध करने के लिए 'कवितावली 'ही अपने आप में पूर्ण है। कवितावली में शास्त्र- प्रसिद्ध सभी भावों का समावेश हुआ है। ये भाव हैं - रति,हास, शोक, क्रोध ,उत्साह, भय ,जुगुप्सा, विस्मय तथा निर्वेद आदि । इनमें सभी भाव अपना चरम उत्कर्ष साध सके हैं। परिणाम स्वरूप 'कवितावली' में श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक,बीभत्स, अद्भुत तथा शांत आदि सभी रसों के दर्शन होते हैं। 'वीर रस' 'कवितावली ' का अंगी रस ( प्रधान ) है।


( १ ) वात्सल्य रस

'कवितावली ' के बालकांड के प्रारंभिक पदों में इस रस की अभिव्यक्ति तुलसी ने की है। 'कवितावली 'का आरंभ वात्सल्य से परिपूर्ण है। एक उदाहरण देखिए-

"अवधेस के द्वारे सकारे गई,

  सूत गोद कै भूपति लै निकसे ।

   अवलोकि हौं  सोच-विमोचन को ठगि सी

   रही, जे न ठगे धिक से।।

   'तुलसी 'मनरंजन रंजित अंजन ,

    नैन सुखंजन जातक से ।

    सजनी ससि में समसील उभै,

    नवनील  सरोरुह से बिकसे ।।'


( २ ) श्रृंगार रस

'कवितावली' में इस रस का चित्रण 'बालकांड 'और 'अयोध्याकांड' में हुआ है। 'बालकांड 'में तुलसी ने श्रृंगार रस का बड़ा ही सौम्य और संयमित वर्णन किया है। विवाह के समय लता मंडप में सीता जी राम को देखने के लिए उत्सुक हैं,लेकिन वे बगल से ताक-झांक नहीं कर सकतीं। तुलसी ने सौम्य  श्रृंगार को पवित्र रखने के लिए सीता जी से राम के रूप का दर्शन कंकण के नंग में करा दिया है-

"दूलह श्री रघुनाथ बने,

         दूलही  सिय सुंदर मंदिर माहीं ।

गावतिं गीत सबै मिलि सुंदरी,

        बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं।

राम को रूप निहारति जानकी,

        कंकन  के नग की परछाहीं।

यातैं सबै सुधि  भूलि गई,

        कर टेकि  रही पल टारति नाहीं।"


रस के चारों अंग इसमें स्पष्ट लक्षित हैं। श्रृंगार का इतना मर्यादित वर्णन हिंदी में कम ही मिलेगा। मर्यादा की दृष्टि से देखा जाए तो यह पद अपने आप में अनूठा है। श्रृंगार का ऐसा स्वच्छ और साफ उदाहरण अन्यत्र कम ही मिल पाएगा ।

'अयोध्याकांड 'में भी वन- गमन के प्रसंग में श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति हुई है।


'विनयपत्रिका' के आधार पर तुलसी की भक्ति भावना का वर्णन

#'विनयपत्रिका' के आधार पर तुलसी की भक्ति भावना का वर्णन

आइए 'विनयपत्रिका' के आधार पर तुलसी की भक्ति भावना पर प्रकाश डालते हैं -

उपासना का एक रुप भक्ति है जिसका अर्थ होता है- भगवान के पास बैठना अथवा भगवान का भजन करना। इसके लिए नारद भक्ति सूत्र में कहा गया हैं कि-


" परमात्मा में परम प्रेम करना ही भक्ति है।"


शांडिल्य भक्तिसूत्र में भी भक्ति की परिभाषा इसी प्रकार की गई है-


"ईश्वर में परमानुरक्ति ही भक्ति है ।"


भक्ति का सबसे पहला रूप हमें वेदों में प्राप्त होता है । अथर्ववेद में इसकी महिमा का ज्ञान विस्तारपूर्वक मिलता है। उपनिषदों जहां ब्रह्म, जीव और जगत पर विस्तार- पूर्वक विचार किया गया है वहां उपासना पद्धति पर भी विस्तार से चर्चा की गई है।


' गीता ' में यद्यपि भक्ति, ज्ञान, योग और कर्म का समन्वय मिलता है फिर भी भक्ति को सर्वाधिक प्रधानता दी गई है।


' गीता 'में कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि-


" सर्वधर्माणि परितज्यम् माम्एकम् शरणं ब्रज:।"


अर्थात् हे अर्जुन अन्य सभी मार्गों को छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सभी पापों से मुक्ति दिला दूंगा। 

'गीता' के बाद उपास्य के स्वरूप की दृष्टि से भक्ति के दो भेद मिलते हैं-

( १ ) निर्गुण भक्ति

( २ ) सगुण भक्ति


भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि निर्गुण की अपेक्षा सगुण भक्ति सरल और सुग्राह्य है। वे कहते हैं कि  इसीलिए लोग मेरी मानवतार के रूप की उपासना करते हैं । यद्यपि में ब्रह्म हूं। 'गीता' में भक्तों की चार कोटियां बताई गई हैं। जिनमें ज्ञानी को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। इसमें यह भी कहा गया है कि भक्ति के क्षेत्र में ऊंच-नीच,  राजा- रंक,ज्ञानी-अज्ञानी आदि का कोई भेद होता ही नहीं। श्रीकृष्ण तो यहां तक कहते हैं कि दुराचारी से दुरा- चारी भी अगर मन लगाकर मेरी भक्ति करता है तो साधु बनने का अधिकारी है‌।


पौराणिक युग में हम देखते हैं कि विष्णु, शिव ,शक्ति, सूर्य और गणपति को विशेष महत्व प्राप्त हुआ और ये पंचदेव कहे गये। इनमें भी विष्णु, शिव और शक्ति की उपा- सना ज्यादातर हुई‌। 'देवीभागवत् 'में जहां शक्ति की उपासना पर बल दिया गया है वहां ' श्रीमद्भागवत ' में भगवान विष्णु की उपासना पर बल दिया गया है। ' भागवत् ' में नवधाभक्ति का उल्लेख मिलता हैं -


" श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्

  अर्चनं वंदनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ।।"


इस नवधा भक्ति की ओर गोस्वामी तुलसी- दास ने भी 'रामचरितमानस' में जगह-जगह पर संकेत किया हैं- शबरी प्रसंग में इसी नवधाभक्ति की बात तुलसी ने कहीं है । इस नवधाभक्ति के अंतर्गत तुलसी की भक्ति का प्रधान रूप ' दास्य भक्ति' है ।


तुलसी की भक्ति 'सेव्य- सेवक' भाव की है जिसका मूल आधार प्रेमरूपाभक्ति है । गोस्वामी तुलसीदास ने स्पष्ट कहा है कि-


" सेवक सेव्य भाव बिनु ,

  भव न तरिय उरगारि । "


'विनयपत्रिका 'भक्तों का कण्ठहार है ।इसमें तुलसी की भक्ति -भावना का व्यापक रूप में उल्लेख हुआ हैं। उन्होंने इसमें अपना हृदय खोलकर रख दिया है तथा भक्ति की पूर्ण पद्धति का अनुसरण करते हुए राम से अपने उद्धार की प्रार्थना की है ।यही कारण है कि यह ग्रंथ भक्तों के हृदय का सर्वस्व ( कंठहार )बन गया है । प्रारंभ से अंत तक हम उसमें तुलसी के भक्त ह्रदय की तन्मयता के दर्शन कर सकते है।


भक्ति के विभिन्न भावों का जिस सच्चाई और स्वाभाविकता के साथ इसके पदों में वर्णन मिलता है वह अनूठा है। कुल मिलाकर यह भक्ति रस का काव्य है, शांत रस का नहीं ।


अब हम 'विनयपत्रिका' के आधार पर तुलसी की भक्ति की विशेषताओं पर विचार करेंगे। 'रामचरितमानस 'में तुलसीदास ने लिखा है-

" श्रुति सम्मत हरि भक्ति पथ संयुत विरति विवेक । "


( १ )  विरति

तुलसीदास ने विरति भाव के लिए मन पर भारी बल दिया है। तुलसी बार-बार मन को श्री राम के चरणों में सदा मग्न रहने की प्रेरणा देते हैं लेकिन मन तो बड़ा चंचल है। जैसे 'गीता 'में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से बार-बार यह कहा हैं-

" अर्जुन अपने मन को बसमें करो ।"


ठीक इसी प्रकार तुलसीदास मन को सांसारिकता से विरक्त होने की प्रेरणा देते है। जब तक मन इस सांसारिकता  से अलग नहीं हो जाता तब तक भक्ति संभव नहीं है। तुलसी ने 'विनयपत्रिका' में कहा हैं -


" जौ निज मन परि हरै बिकारा

  तौ कत द्वैत -जनित संसृति-दु:ख संशय,

  सोक अपारा ।"


काव्य की दृष्टि से रामचरितमानस | महाकाव्य | लक्षण एवं समीक्षा


'साहित्य दर्पणकार' आचार्य विश्वनाथ ने 'सर्गबद्धो महाकाव्य ' कहकर महाकाव्य अथवा प्रबंध काव्य के लक्षण इस प्रकार बताये हैं-


( १ ) प्रबंध महाकाव्य सर्गबद्ध होना चाहिए,सर्ग कम-से-कम आठ हों ।


( २ ) महाकाव्य का नायक धीरोदात्त, कुलीन ,क्षत्रिय अथवा देवता होना चाहिए। एक वंश के अनेक राजा भी नायक हो सकते हैं।


( ३ ) इसमें श्रृंगार, वीर और शांत- तीनों रसों में से कोई एक रस अंगीरस के रूप में होना चाहिए तथा अन्य रस उसको पुष्ट करने में सहायक हों ।


( ४ ) इसमें सभी नाट्य संधियां उपलब्ध हों।


( ५ ) कथानक ऐतिहासिक अथवा सज्जना- श्रित होना चाहिए ।


( ६ )  प्रारंभ में किसी के प्रति आशीर्वचन हो, इसका आरंभ मंगलाचरण से होना चाहिए ।


( ७ )  प्रत्येक सर्ग में  एक छंद का निर्वाह हो तथा अंत में छंद परिवर्तन होना चाहिए। प्रत्येक सर्ग  के अंत में अगले सर्ग के विषय की ओर संकेत होना चाहिए ।


( ८ ) महाकाव्य द्वारा अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष में से किसी एक फल की प्राप्ति होने चाहिए।


( ९ ) महाकाव्य का नामकरण कवि, कथा अथवा प्रमुख पात्र पर होना चाहिए। साथ ही प्रत्येक सर्ग का नामकरण उसमें वर्णित घटनाओं के आधार पर होना चाहिए।


( १० ) महाकाव्य में प्रकृति की मनोरम छटा- संध्या, प्रात:, मध्यान्ह, सूर्य, चंद्र , रात्रि प्रभात, पर्वत, सागर, सरिता, मृगया, युद्ध, आक्रमण, विवाह आदि का वर्णन होना चाहिए। इसके अतिरिक्त यज्ञादि का प्रसंगानुकूल वर्णन होना चाहिए ।


महाकाव्य के उपर्युक्त लक्षणों के आधार पर अब हम 'रामचरितमानस' के प्रबंध तत्व की समीक्षा करेंगे।


( १ ) सप्तसोपान

तुलसी ने 'रामचरितमानस ' की कल्पना मानसरोवर के रूप में की है ।एक सरोवर की सात सीढ़ियों के समान सात कांडो को सोपान की संज्ञा दी गई है ।तुलसी ने दो स्थलों पर ( उपक्रम और उपसंहार में )

सप्तसोपान का सांकेतिक स्पष्टीकरण किया है । 'मानस ' के ये   सोपान वस्तुत: भक्ति के सोपान हैं। ये सोपान रामभक्ति के पंथ है।


( २ )  'रामचरितमानस' में सुसंगठित कथानक

'रामचरितमानस 'का विख्यात कथानक इतिहास ,पुराणों, काव्यों,नाटकों  आदि में प्रचुरता से वर्णित हैं। तुलसी ने इसे अपने ढंग से सजाया और संवारा है। 'रामचरित- मानस' की कथावस्तु बहुत कुछ पौराणिक है ।अध्यात्म रामायण में शिवने पार्वती के प्रति रामकथा का वर्णन किया है। तुलसी ने 'मानस 'के प्रथम सोपान में मंगलाचरण के पश्चात ही स्पष्टत: लिखा है कि-


" नानापुराणनिगमागमसम्मतं  यद्

         रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोडपि।

  स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा

          भाषानिबंधमति मंजुलमातनोति।।"


तुलसी की रघुनाथ गाथा अर्थात्  'रामचरितमानस ' । इस प्रकार अपने अंतःकरण के सुख के लिए तुलसी ने इस ग्रंथ की रचना की है' रामचरितमानस' पर मानसरोवर का आरोप करके रूपक बांधा है । चार घाटों की कल्पना की है। ये चार घाट हैं- कर्मघाट, ज्ञानघाट, उपासना घाट और प्रपत्ति घाट। उनके वक्ता- श्रोता हैं -

याज्ञवल्क्य- भारद्वाज,शिव -पार्वती,

काकभुशुंडि -गरुड और तुलसी- संतजन।

सभी वक्ताओं का मुख्य प्रतिपाद्य राम भक्ति ही है।


'रामचरितमानस' की कथावस्तु का आयाम राम जन्म से लेकर राजाराम के वृत्त- वर्णन तक है । रामावतार के हेतुआओं का निरूपण करके मुख्य कथा का आरंभ किया गया है ।

'रामचरितमानस 'का समूचा कथानक सात कांडों में विभक्त हैं। आधिकारिक कथा मर्यादापुरुषोत्तम राम जैसे चरितनायक से सम्बद्ध है ।और कथानक के गठन की दृष्टि से आदि ,मध्य एवं अंत तीनों ही सुसंगठित है ।रामावतार के हेतुओं का निरूपण करके मुख्य कथा का आरंभ किया गया है । आधिकारिक कथावस्तु के साथ-साथ अनेक प्रासंगिक कथाएं भी चलती हैं जो मुख्य कथा को आगे बढ़ाती है। 'रामचरितमानस ' का समूचा कथानक अधिकतर संवादात्मक है । यही कारण है कि आज भी जहां-जहां रामलीलाएं होती है उसके मूल में 'मानस' को रखा जाता है । असत् पर सत् की विजय दिखलाना ही इस कथानक का महत्त उद्देश्य है ।


तुलसी की नारी भावना | तुलसी की नारी चेतना | Tulsidas Ka Nari Sambandhi Vichar

तुलसी के नारी संबंधी विचार इतने ज्यादा विवादास्पद रहे है कि समीक्षा के क्षेत्र में दो वर्ग स्पष्टत: अलग-अलग दिखाई देने लगे। एक वर्ग वह है जो यह मानता हैं कि तुलसी दास ने नारी की भूरी- भूरी प्रशंसा की है और दूसरा वर्ग यह मानता हैं कि तुलसी- दास घोर नारी निंदक थे ।

#Tulsidas Ka Nari Sambandhi Vichar

तुलसी की नारी भावना (नारी चेतना) के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के मत 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल और रामकुमार वर्मा जैसे समीक्षकों ने तुलसी को नारी प्रशंसक बताया है।


आचार्य शुक्लजी का यह मत है कि-

" युग व्यापक विराग और तप की भावना के कारण तुलसी ने नारी के उस रूप का विरोध किया है जो तप और निवृत्ति में बाधक है।"


इसी प्रकार रामकुमार वर्मा कहते  हैं-

" तुलसीदास ने नारी जाति के लिए बहुत आदर भाव प्रकट किया है। पार्वती,अनुसूया, कौशल्या ,सीता ,ग्रामवधू आदि की चरित्र- रेखा पवित्र और धर्मपूर्ण विचारों से निर्मित हुई है ।"


दूसरे पक्ष के हिमायती अर्थात् तुलसी को नारी  निंदक माननेवाले समीक्षकों में मिश्रबंधुओं का नाम सबसे ज्यादा लिया जाता है।


इसी तरह माताप्रसाद गुप्त कहते हैं-

" प्रत्येक युग के कलाकार नारी-चित्रण में प्रायः उदार पाए जाते हैं, किंतु नारी- चित्रण में तुलसीदास बेहद अनुदार हैं। यद्यपि उनकी इस अनुदारता का कारण अब तक रहस्य के गर्भ में छिपा हुआ है, पर नारी- विषयक उनकी अनुदारता एक ऐसा तथ्य है जिसको अस्वीकृत नहीं किया जा सकता।"


उपर्युक्त दोनों अवधारणाओं के अनेक कारण हैं। वास्तव में तुलसी की नारी भावना को परखने के लिए मोटे तौर पर चार शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है।

(१)  इष्ट से संबंधित नारी

(२)  नारी का आदर्श रूप

(३)  नारी का परंपरागत सामाजिक रूप

(४)  परंपरागत नारी निंदा


तुलसी का समन्वयवाद | तुलसीदास की समन्वय भावना | Tulsi ka samanyavad

समन्वयवाद | Tulsidas ka Samanyavad

समन्वयवाद भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। इस देश में समय-समय पर कितनी ही संस्कृतियों का आगमन और आविर्भाव हुआ, परंतु वे घुल-मिलकर एक हो गयीं। महाकवि तुलसी ऐसे समय में अवतरित हुए, जब धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक सभी क्षेत्रों में एक विचित्र-सी अव्यवस्था फैली हुई थी। सभी ओर उथल-पुथल और हलचल व्याप रही थी।  रूढ़ियों ,अंधविश्वास,बाह्याचारों आदि का बोलबाला था । कहने का तात्पर्य यही है कि संगठन और समन्वय के स्थान पर विघटनकारी प्रवृत्तियों को पूरा  प्रोत्सा- हन मिल रहा था ।

#Tulsi ka samanyavad


तुलसी ने जीवन के इस विराट किंतु अत्यंत सूक्ष्म सत्य को अनुभव किया है। तुलसी के काव्य-लोक में विशेषत: 'रामचरितमानस' में हमें कवि की 'समन्वय की विराट-चेष्टा' के दर्शन उपलब्ध होते हैं । कहना न होगा कि इसी कारण तुलसी को बुद्ध के बाद भारत का दूसरा लोकनायक माना गया है।


आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार-

"लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके, क्योंकि भारतीय समाज में नाना भांति की परस्पर विरोधीनी संस्कृतियां, साधनाएं ,विचार और धर्म सिद्धांत प्रचलित रहते हैं । बुद्धदेव समन्वयकारी थे, गीता में समन्वय की चेष्टा की गई है और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे। "


तुलसी की समन्वयवादी विचारधारा

बुद्ध भगवान ने किसी नवीन धर्म का प्रतिपादन नहीं किया था । उनकी महिमा की आधार भूमि ' मध्यमा प्रतिपदा ' समन्वय का ही मार्ग है। महात्मा बुध के समान तुलसी भी लोक रक्षक धर्म का पालन करने वाले थे। 'रामचरितमानस' के रूप में तुलसी में समन्वय का आदर्श रूप प्रस्तुत किया। संक्षेप में तुलसी के समन्वयवादी विचार इस प्रकार हैं -


( १ ) निर्गुण और सगुण का समन्वय

तुलसीदास के युग में ब्रह्म को लेकर विभिन्न  मतभेद थे । निर्गुण और सगुण का विवाद दो क्षेत्रों  में था - दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में और भक्ति के क्षेत्र में । कोई उसके निर्गुण रूप का निरूपण करता था तो कोई सगुण रूप की वंदना करता था। तुलसी को भगवान के दोनों रूपों में अटूट विश्वास था। उन्होंने कट्टर सगुणमार्गी होते हुए भी भगवान के निर्गुण रूप में भी अपना विश्वास रखा। उनके अनुसार निर्गुण ब्रह्म ही सगुण   रूप धारण कर विपत्तियों का नाश करता है। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों को ही ब्रह्म के दो रूप माने हैं-

" अगुन सगुन दुइ  ब्रह्म सरूपा ।

  अकथ अगाध  अनादि अनुपा ।।"


उनके विचार से  ब्रह्म के  निर्गुण और सगुण रूप में कोई भेद नहीं। अपने तर्कपूर्ण कथनों द्वारा वे स्पष्ट करते हैं कि

"अगुनहि सगुनहि  नहिं कछु भेदा ।

  गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा ।।

  अगुन अरूप अलख अज जोई।

  भगत प्रेम बस सगुन सो होई।‌।

  जो गुन रहित सगुन सोई कैसें।

  जलु हिम उपल बिलख नहिं जैसैं ।।"


वस्तुत:राम एक है। वे ही निर्गुण और सगुण, निराकार और साकार ,अव्यक्त और व्यक्त, गुणातीत और गुणाश्रय है। निर्गुण राम ही भक्तों के प्रेम-वश सगुण रूप में प्रकट होते हैं ।


( २ ) शैवों और वैष्णवों का समन्वय

निर्गुण तथा सगुण  की भांति ही तुलसी के युग में शिव तथा विष्णु को अपना आराध्य देव मानकर शैवों और वैष्णवों के दो वर्ग बन गए थे। दोनों के बीच मतभेद बढ़ते गये , किंतु तुलसी ने 'रामचरितमानस' में शैवों तथा वैष्णवों के बीच की इस गहरी खाई को पाटने का प्रयास किया । यद्यपि वे वैष्णव भक्त थे, परंतु 'रामचरितमानस 'के प्रारंभ में उन्होंने शिवजी तथा पार्वती की वंदना की है-

" भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।"


तुलसीदास जी ने 'रामचरितमानस' में स्थान- स्थान पर शिव और राम के संबंध को स्पष्ट किया। राम शंकर को स्वयं बड़ा महत्व देते हैं-

" सिवद्रोही मम दास कहावा ।

  सो नर सपनेहु मोहि न भावा ।

    +       ‌        +     ‌        +    ‌ ‌    +

  संकर प्रिय मम द्रोही, सिव द्रोही मम दास।

  ते नर करहिं कलप भरि,घोर नरक महुं वास ।।"


स्वयं राम शंकर की पूजा करते हैं और शंकर राम के उपासक हैं।तुलसीदास ने शंकर की वंदना करते हुए लिखा है-

" सेवक स्वामि सखा सियपी के।"


तुलसी के दार्शनिक विचार | Goswami Tulsidas Ke Darshnik Vichar

गोस्वामी तुलसीदास जी की दार्शनिक विचारधारा

हिंदी साहित्य की इस पोस्ट में आज हम गोस्वामी तुलसीदास जी के दार्शनिक विचारों की विवेचना / तुलसी की दार्शनिक विचारधारा / तुलसीदास के दार्शनिक विचारों पर प्रकाश पर विस्तृत अध्यन करेंगे।

तुलसी का दर्शन

तुलसी से पूर्व निम्नलिखित संप्रदाय प्रवर्तित थे।

( १ ) शंकराचार्य का अद्वैतवाद या मायावाद

( २ ) रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैतवाद

( ३ ) माध्वाचार्य का ब्रह्म सम्प्रदाय ( द्वैतवाद )

( ४ ) निम्बार्काचर्या का द्वैताद्वैत

( ५ ) वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत अथवा पुष्टिसंप्रदाय

( ६ ) चैतन्य महाप्रभु का गौड़ीय संप्रदाय

उपर्युक्त दार्शनिक संप्रदायों में शंकराचार्य का अद्वैत सबसे अधिक प्राचीन और महत्वपूर्ण रहा।जिसमें "ब्रह्म सत्यम् जगत् मिथ्या "के सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया। 

शंकराचार्य का दर्शन ज्ञानवाद पर अवलंबित था। इसलिए सामान्य जनता में वह उतना लोकप्रिय नहीं हो सका जितना होना चाहिए था । शंकराचार्य ने भी अंत में "भज गोविंदम् भज गोविंदम्" कहा है। अर्थात् भगवान की भक्ति के पद पर आखिर में शंकराचार्य ही पहुंचे है। और आगे चलकर जितने भी दार्शनिक हुए उन्होंने क्रमश: भक्ति के द्वार खोल दिये है। 

गोस्वामी तुलसीदास जिस समय 'रामचरित मानस ' और 'विनयपत्रिका' की रचना कर रहे थे उस समय ये सभी मत अपने-अपने स्तर पर प्रचलित थे। गोस्वामी तुलसीदास किस दार्शनिक मत के प्रवर्तक - अनुयायी थे इस संबंध में बड़ा मतभेद है। इस संबंध में हमें 'रामचरितमानस 'और' विनयपत्रिका' के  पदों  को  गहराई से देखना होगा ।


तुलसी के दार्शनिक दृष्टिकोण

तुलसी ने अपने काव्य में भक्ति के स्वरूप को व्याख्यायित करने के लिए ब्रह्म ,जीव, जगत, सृष्टि और माया के संबंध में भी संकेत किये है। इन संकेतों को स्पष्ट करना ही तुलसी के दार्शनिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करना है।


गोस्वामी तुलसीदास का जीवन परिचय | Tulsidas ka Jivan Parichay

#Tulsidas ka Jivan Parichay

तुलसीदास का जीवन चरित्र | Tulsidas ka Jivan Parichay

भारतीय महापुरुषों के जीवनचरित के संबंध में प्राय बड़ी गड़बड़ी देखने को मिलती है। उनके लौकिक जीवन की सूचना देनेवाली निश्चित घटनाओं, तिथियों आदि का उल्लेख बहुत कम मिलता है। संत, महात्माओं और कवियों के संबंध में तो और भी कम सामग्री उपलब्ध है। कबीर, जायसी, सूरदास आदि की जीवनी आज भी अपूर्ण ज्ञात है और यही बात गोस्वामी तुलसीदास के संबंध में भी कही जा सकती है । उनके जन्म, माता-पिता, परिवार,गुरु आदि के संबंध में  विभिन्न मत और जनश्रुतियों प्रचलित है। जिनका समावेश अनेक ग्रंथों में विस्तार से हुआ है। तुलसीदास के व्यक्तित्व का निरूपण हमें विभिन्न रूपों में देखने को मिलता हैं।


तुलसीदास का जन्म-समय

तुलसीदास के जन्म को लेकर पर्याप्त मतभेद मिलते हैं।

( १ ) ' शिवसिंह सरोज' के अनुसार तुलसीदास का जन्म संवत् १५८२ के लगभग हुआ था ।

( २ ) डॉ. ग्रियर्सनने 'घटरामायण 'के आधार पर तुलसीदास की जन्म- तिथि संवत् १५८९ मानी है। इसका डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने भी समर्थन किया है।

( ३ ) मिर्जापुर के प्रसिद्ध रामभक्त पं. रामगुलाम द्विवेदी ने जनश्रुति के आधार पर इनका जन्म संवत् १५८९ स्वीकार किया है।

( ४ ) वेणीमाधवदास कृत ' मूल गोसाई - चरित ' में तुलसी का जन्म सावन शुक्ला ७ संवत् १५५४ है। वास्तव में यह तिथि ही अधिक प्रामाणिक मानी जा सकती है-

"पन्द्रह सै चौवन विषै कालिंदी के तीर ।
श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी धरे सरीर ।। "


तुलसीदास का जन्म स्थान

साहित्य- शोध के पंडितों ने तुलसीदास के जन्म- स्थान के संबंध में अपने-अपने मत इस प्रकार व्यक्त किए हैं।

( १ ) आचार्य रामचंद्र शुक्ल, विजयानंद त्रिपाठी, रामबहोरी शुक्ल के मतानुसार तुलसी का जन्म स्थान राजापुर है।

( २ ) श्री चंद्रबली पाण्डेय के मतानुसार तुलसी की जन्मभूमि अयोध्या है ।

( ३ ) श्री रजनीकांत शास्त्री तुलसी का जन्म काशी में मानते हैं।

( ४ ) ग्रियर्सन ने सन् १८९३ में एक पुस्तक 'नोट्स ऑन तुलसीदास' लिखी‌। जिसके अनुसार तुलसी का जन्म स्थान तारी माना गया है।

( ५ ) डॉ. रामदत्त भारद्वाज का मत है कि तुलसी का जन्म -स्थान रामपुर है, जो सोरों (सूकर क्षेत्र) के निकट है।

( ६ ) लाला सीताराम, गौरीशंकर द्विवेदी तथा रामनरेश त्रिपाठी भी सोरों को तुलसीदास जी का जन्म- स्थान मानते हैं।