'विनयपत्रिका' के आधार पर तुलसी की भक्ति भावना का वर्णन

'विनयपत्रिका' के आधार पर तुलसी की भक्ति भावना का वर्णन

    #'विनयपत्रिका' के आधार पर तुलसी की भक्ति भावना का वर्णन

    आइए 'विनयपत्रिका' के आधार पर तुलसी की भक्ति भावना पर प्रकाश डालते हैं -

    उपासना का एक रुप भक्ति है जिसका अर्थ होता है- भगवान के पास बैठना अथवा भगवान का भजन करना। इसके लिए नारद भक्ति सूत्र में कहा गया हैं कि-


    " परमात्मा में परम प्रेम करना ही भक्ति है।"


    शांडिल्य भक्तिसूत्र में भी भक्ति की परिभाषा इसी प्रकार की गई है-


    "ईश्वर में परमानुरक्ति ही भक्ति है ।"


    भक्ति का सबसे पहला रूप हमें वेदों में प्राप्त होता है । अथर्ववेद में इसकी महिमा का ज्ञान विस्तारपूर्वक मिलता है। उपनिषदों जहां ब्रह्म, जीव और जगत पर विस्तार- पूर्वक विचार किया गया है वहां उपासना पद्धति पर भी विस्तार से चर्चा की गई है।


    ' गीता ' में यद्यपि भक्ति, ज्ञान, योग और कर्म का समन्वय मिलता है फिर भी भक्ति को सर्वाधिक प्रधानता दी गई है।


    ' गीता 'में कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि-


    " सर्वधर्माणि परितज्यम् माम्एकम् शरणं ब्रज:।"


    अर्थात् हे अर्जुन अन्य सभी मार्गों को छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सभी पापों से मुक्ति दिला दूंगा। 

    'गीता' के बाद उपास्य के स्वरूप की दृष्टि से भक्ति के दो भेद मिलते हैं-

    ( १ ) निर्गुण भक्ति

    ( २ ) सगुण भक्ति


    भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि निर्गुण की अपेक्षा सगुण भक्ति सरल और सुग्राह्य है। वे कहते हैं कि  इसीलिए लोग मेरी मानवतार के रूप की उपासना करते हैं । यद्यपि में ब्रह्म हूं। 'गीता' में भक्तों की चार कोटियां बताई गई हैं। जिनमें ज्ञानी को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। इसमें यह भी कहा गया है कि भक्ति के क्षेत्र में ऊंच-नीच,  राजा- रंक,ज्ञानी-अज्ञानी आदि का कोई भेद होता ही नहीं। श्रीकृष्ण तो यहां तक कहते हैं कि दुराचारी से दुरा- चारी भी अगर मन लगाकर मेरी भक्ति करता है तो साधु बनने का अधिकारी है‌।


    पौराणिक युग में हम देखते हैं कि विष्णु, शिव ,शक्ति, सूर्य और गणपति को विशेष महत्व प्राप्त हुआ और ये पंचदेव कहे गये। इनमें भी विष्णु, शिव और शक्ति की उपा- सना ज्यादातर हुई‌। 'देवीभागवत् 'में जहां शक्ति की उपासना पर बल दिया गया है वहां ' श्रीमद्भागवत ' में भगवान विष्णु की उपासना पर बल दिया गया है। ' भागवत् ' में नवधाभक्ति का उल्लेख मिलता हैं -


    " श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्

      अर्चनं वंदनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ।।"


    इस नवधा भक्ति की ओर गोस्वामी तुलसी- दास ने भी 'रामचरितमानस' में जगह-जगह पर संकेत किया हैं- शबरी प्रसंग में इसी नवधाभक्ति की बात तुलसी ने कहीं है । इस नवधाभक्ति के अंतर्गत तुलसी की भक्ति का प्रधान रूप ' दास्य भक्ति' है ।


    तुलसी की भक्ति 'सेव्य- सेवक' भाव की है जिसका मूल आधार प्रेमरूपाभक्ति है । गोस्वामी तुलसीदास ने स्पष्ट कहा है कि-


    " सेवक सेव्य भाव बिनु ,

      भव न तरिय उरगारि । "


    'विनयपत्रिका 'भक्तों का कण्ठहार है ।इसमें तुलसी की भक्ति -भावना का व्यापक रूप में उल्लेख हुआ हैं। उन्होंने इसमें अपना हृदय खोलकर रख दिया है तथा भक्ति की पूर्ण पद्धति का अनुसरण करते हुए राम से अपने उद्धार की प्रार्थना की है ।यही कारण है कि यह ग्रंथ भक्तों के हृदय का सर्वस्व ( कंठहार )बन गया है । प्रारंभ से अंत तक हम उसमें तुलसी के भक्त ह्रदय की तन्मयता के दर्शन कर सकते है।


    भक्ति के विभिन्न भावों का जिस सच्चाई और स्वाभाविकता के साथ इसके पदों में वर्णन मिलता है वह अनूठा है। कुल मिलाकर यह भक्ति रस का काव्य है, शांत रस का नहीं ।


    अब हम 'विनयपत्रिका' के आधार पर तुलसी की भक्ति की विशेषताओं पर विचार करेंगे। 'रामचरितमानस 'में तुलसीदास ने लिखा है-

    " श्रुति सम्मत हरि भक्ति पथ संयुत विरति विवेक । "


    ( १ )  विरति

    तुलसीदास ने विरति भाव के लिए मन पर भारी बल दिया है। तुलसी बार-बार मन को श्री राम के चरणों में सदा मग्न रहने की प्रेरणा देते हैं लेकिन मन तो बड़ा चंचल है। जैसे 'गीता 'में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से बार-बार यह कहा हैं-

    " अर्जुन अपने मन को बसमें करो ।"


    ठीक इसी प्रकार तुलसीदास मन को सांसारिकता से विरक्त होने की प्रेरणा देते है। जब तक मन इस सांसारिकता  से अलग नहीं हो जाता तब तक भक्ति संभव नहीं है। तुलसी ने 'विनयपत्रिका' में कहा हैं -


    " जौ निज मन परि हरै बिकारा

      तौ कत द्वैत -जनित संसृति-दु:ख संशय,

      सोक अपारा ।"


    ( २ ) विवेक

    विरति की तरह ही तुलसी ने भक्ति के लिए विवेक को आवश्यक माना है। भक्ति के लिए ही तुलसी ने विनय भावपूर्वक 'विनय- पत्रिका ' “लिखी है ,जिसमें एक ओर विनय है तो दूसरी और विवेक भी है। तुलसीदास उपयुक्त अवसर पाकर महारानी सीता जी से महाराज से अपनी चर्चा चलाने की विनती करते है-


    " कबहुंक अम्ब अवसर पाइ।

      मेरिऔ सुधि धाइबी, कछु करुन- कथा

      चलाइ ।।"


    यहां तुलसी ने अपनी विनय सुनाने की संपूर्ण कुशलता व्यक्त कर दी है ।


    ( ३ ) सत्संग

    सत्संग की महिमा यों तो सभी भक्तों और संतों ने गाई है लेकिन तुलसीदास ने स्पष्ट कहा है-


    " बिनु सत्संग भगति नहीं होई "


    अर्थात् सत्संग के बिना भक्ति असंभव है। संसाररूपी भयंकर समुद्र में अपने जीवन नौका सत्संग के द्वारा ही ले जायी जा सकती है । 'विनयपत्रिका' में तुलसीदास कहते हैं-


    " संशय समन दमन दुख सुख निधान हरि एक ।

      साधु -कृपा बिनु मिलहिं नहिं करिय उपाय अनेक ।।"


    अर्थात् संत संशयों का सम्मान करते हैं। दु:खों को दूर करते हैं और असीम सुख देते हैं ।साधु की कृपा से ही भगवान मिलते हैं। इस कलियुग में और कोई दूसरा मार्ग है ही नहीं ।


    ( ४ ) रामकृपा

    इसीको प्रपत्ति भाव कहा गया है। अर्थात् भगवान की कृपा जब तक प्राप्त नहीं होती तब तक भक्ति  असंभव है यानि भक्ति भगवान की कृपा से ही मिलती है। पुष्टि मार्ग में तो कहा भी गया है-


    "पोषणं तदनुग्रह इति पुष्टि ।"


    तुलसीदास भी इसी मार्ग का अनुसरण करते है-


    " कबहुंक हौं यहि रहनि रहौंगो।

      श्रीरघुनाथ- कृपालु -कृपातें, संत-सुभाव गहौंगो ।।"


    अर्थात् क्या मैं कभी इस रहनी से रहूंगा ?

    क्या मैं कृपालु श्रीरघुनाथजी की कृपा से कभी संतों का स्वभाव ग्रहण कर सकूंगा?



    ( ५ ) भगवान पर आश्रित रहना

    तुलसीदास  ने 'विनयपत्रिका' में कहा है कि मुझे तो एकमात्र श्रीराम के चरणों का भरोसा है ।अत: तप, तीर्थाटन,यज्ञ और उपवास आदि का आश्रय लेनेवाले इन विधियों का आश्रय लेते रहें, किंतु मैं तो रामनाम -रूपी  जहाज पर चढ़कर ही इस भव-सागर को पार करूंगा -


    " नाहिंन आवत आन भरोसो,

      यहि कलिकाल सकल साधन,

      तरुहैं स्रम-फलनि फरोसों।

      तप , तीरथ, उपवास, दान,

      नख जेहि जो  सचै करै सो

      पायेंहि पैं जानिबो करम-फल भरि-भरि वेद परोसों ।।"


    ( ६ ) राम - नाम का स्मरण

    गोस्वामी तुलसीदास की भक्ति की नींव में है राम नाम और उसका स्मरण । नवधाभक्ति के मूल में भी यही मंत्र है।

    तुलसीदास कहते हैं -


    "राम सो बड़ो है राम को नाम।"


    तुलसीदास ने ' रामचरितमानस' और 'विनयपत्रिका ' में राम नाम की महिमा का गान किया है ।उन्होंने 'विनयपत्रिका' के अनेक पदों में अपने मन को इसी प्रकार उद्बोधन किया हैं-


    " राम राम रटु, राम राम रटु, राम राम जपु जीहा ।

      रामनाम -नव नेह -मेहको मन!

      हठि  होहि पपीहा। ।"     


    तुलसीदास ने रामनाम के जाप पर बहुत बल दिया है -


    " राम जपु ,राम जपु ,राम जपु बावरे।

    घोर भव-नीर-निधि, नाम निज नावरे।"


    तुलसीदास  की धारणा है कि इस भवरूपी सागर को पार करने के लिए राम नाम रूपी जहाज ही अमोघ  साधन है। अत:उसका निरंतर जाप करते रहना चाहिए ।


    राम के प्रति तुलसी का पूर्ण विश्वास है, प्रेम है । चकोर ,पपीहा और मीन जिस प्रकार चंद्रमा, बादल और जल से अनन्य भाव से प्रेम करते हैं ठीक उसी प्रकार तुलसीदास राम से प्रेम करते हैं । चातक उनके प्रेम का प्रतीक है-


    " एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास।एक राम घनस्याम हित,चातक तुलसीदास।"


    तुलसी अपनी हीनता और राम की महत्ता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि-


    "राम सो बड़ो हैं कौन,मो सो  कौन छोटो?

    राम सो खरो है कौन,मो सो  कौन खोटो?"


    तुलसीदास ने अपने मन को चेतावनी दी है कि मनुष्य का दुर्लभ शरीर बार-बार नहीं मिलता, इसलिए कर्म, वचन और हृदय से हरि का भजन करके उसे सफल बनाना चाहिए-


    " मन! पछितेहै अवसर बीते।

      दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु,

      करम वचन अरु ही ते ।"


    ( ७ ) शरणागति

    गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि-

    " सर्वधर्माणि परितज्यम् माम्एकम् शरणम्

      ब्रज: ।"

    ठीक उसी प्रकार तुलसी भी कहते हैं कि-


      "ऐसो को उदार जग माहीं।

      बिनु सेवा जो द्रवै दीनपर राम सरिस कोउ

      नाहीं।।"


    तुलसी अपनी हीनता और मलीनता का परिचय देते हुए कहते हैं कि-


    " माधव ,मो समान जग माहीं।

      सब विधि हीन, मलीन,दीन अति,  लीन-

      विषय कोउ नाहीं।।"


    शरणागति के संदर्भ में यह बात तुलसी ने बार-बार कहीं कि अपना सुख -दु:ख सब कुछ राम के चरणों में रख दो और सारे जग को सियाराममय कर दो सारे क्लेश समाप्त हो जायेंगे ।


    ( ८ ) पतितपावन

    तुलसी के राम पतितपावन है। अपने आराध्य भक्तों के उद्धारक भगवान राम की

    शरण में पहुंचकर वे कितनी भावुकता  के साथ सरल हृदय से विनय करते हैं-


    " मैं हरि पतित -पावन सुने ।

      मैं पतित तुम पतित-पावन,

      दोउ बानक बने ।।"


    ( ९ )  दीनता या दैन्यभावना

    प्रभु की अनंत शक्ति के प्रकाश में ,अनंत शील और सौंदर्य के दिव्यालोक में तुलसी को अपनी दीन दशा यहां तक की हृदया- न्तर्गत विकारों का स्पष्ट आभास होने लगता है और वे अपने को समस्त ब्रह्मांड में दीन- हीन पाते हैं। उनकी आत्मा पुकार उठती हैं-


    " तू दयालु, दीन हौं, तू दानि , हौं भिखारी।

       हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप पुंज हारी ।।"


    एक अन्य पद देखिए जिसमें भक्त  हृदय की पूर्ण झांकी मिलती है-


    " कहां जाऊं,कासों कहौ, को सुनै दीन की।

       त्रिभुवन तुही गति ,सब अंगहीन की ।।"


    उपसंहार

    भक्तिरस का पूर्ण परिपाक जिस प्रकार 'विनयपत्रिका' में हुआ है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है ।'विनयपत्रिका' भक्तिकाण्ड का एक

    परमोत्कृष्ट ग्रंथ है ।अनुराग महोदधि का एक दिव्य रत्न है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि भक्ति का जैसा सरल और उदात्त  स्वरूप 'विनयपत्रिका 'में प्रकट हुआ है वैसा हिंदी साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है। संपूर्ण 'विनयपत्रिका 'तुलसी के आत्मनिवेदन के स्वरों में रामभक्ति की कहानी कर रही है। 


    Written By:

     Dr. Gunjan A. Shah 
     Ph.D. (Hindi)
     Hindi Lecturer (Exp. 20+)
      

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