'विनयपत्रिका' का काव्य सौष्ठव | 'विनयपत्रिका' के भावपक्ष तथा कलापक्ष

'विनयपत्रिका' का काव्य सौष्ठव | 'विनयपत्रिका' के भावपक्ष तथा कलापक्ष

    # 'विनयपत्रिका' के भावपक्ष तथा कलापक्ष

    'विनयपत्रिका' भक्ति रस का असाधारण काव्य है। दार्शनिक और साहित्यिक दोनों दृष्टियों से यह तुलसी की बहुत ही प्रौढ़ एवं उत्कृष्ट कृति है। 'विनय काव्य' की दृष्टि से यह अप्रतिम है। अतः इसमें उनके काव्य वैभव का ”चरमोत्कर्ष" उपलब्ध होना सहज स्वाभाविक प्रतीत होता है। यह कृति जहां भाव पक्ष की दृष्टि से अत्यधिक रमणीय है वहीं इसका कला पक्ष भी पर्याप्त परिष्कृत और मनोहारी है। अब हम इसके भाव- सौंदर्य पर विचार करेंगे।


    'विनयपत्रिका' के भावपक्ष तथा कलापक्ष

    'विनयपत्रिका' का भाव पक्ष

    'रामचरितमानस' से लेकर 'बरवैरामायण' तक सभी कृतियों की भावाभिव्यक्ति का प्रभाव 'विनयपत्रिका' के भावों पर कहीं प्रत्यक्ष रूप में और कहीं अप्रत्यक्ष रूप में पाया जाता हैं।


    ( १ ) रस-भाव व्यंजना

    'विनयपत्रिका 'का मुख्य तथा प्रधान रस भक्ति रस है। कुछ आलोचक की धारणा इससे भिन्न है ।


    पंडित चंद्रबली पांडे का कथन है कि-

    "वह वास्तव में शांत रस का ही ग्रंथ है, उसमें सभी रस जहां-तहां दिखाई दे जाते हैं, किंतु जो भाव आदि से अंत तक बना रहता है वह निर्वेद ही है, विनय में निर्वेद का राज्य है।"

    कुछ आलोचकों ने 'विनयपत्रिका' में भक्ति रस का परिपाक मानते हुए भी उसके कतिपय भक्तिरस -व्यंजक पदों को शांत रस के उदाहरण- रूप में उद्धृत किया है, 

    जैसे-

    "मन! पछितेहै अवसर बीते।

      दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु,

      करम वचन अरु ही ते ।"

    यहां भी ' निर्वेद ' भक्ति का पोषक है। अत: पूरे पद का व्यंग्य शांत नहीं, भक्ति रस है।


    'विनयपत्रिका' में एकाध स्थलों पर शांत रस की अभिव्यक्ति मानी जा सकती है-


    " केसव ! कहि न जाइ का कहिये

      देखत तव रचना विचित्र हरि!

      समुझि मनहिं मन रहिये ।।

    +         +        +         +          +

      कोउ कह सत्य, झूठ कह कोउ,

      जुगल प्रबल कोउ मानै ।

      तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम,

      सो आपन पहिचानौ ।।"


    यहां भी यह तर्क किया जा सकता है कि तुलसी का प्रतिपाद्य भक्ति है ,वह विवेक संयुत है ।


    एकाध पदों को शांतरसात्मक मान लेने से 'विनयपत्रिका' के भक्त्यात्मक (भक्तिपरक)  स्वरूप में कुछ अंतर नहीं पड़ता। यह तो विनय की ' पत्रिका ' है, आद्योपांत भक्ति से ओतप्रोत है। आश्रय स्वयं तुलसीदास हैं। आरंभिक पदों में गणेश ,सूर्य ,शिव आदि का आलंबन रूप में चित्रण किया गया है किंतु उनसे भी रामभक्ति की ही याचना की गयी है ।वे साधन है। ' विनयपत्रिका' के आलंबन राम ही हैं। आलम्बन राम के सौंदर्य अंकन को 'विनयपत्रिका' के अनुपयुक्त समझकर तुलसी ने उनके दीन- उद्धारक, करुणामय, शोकसंतापहारी ,पापनाशक, शरणागतपालक और भक्तवत्सल रूप पर ही विशेष ध्यान दिया है-


    " दीन उद्घारण रघुवर्य या करुणा- भवन,

       शमन- संताप , पापोघहारी ।"


    " अखिल -संसार- उपकार- कारण,

        सदयहृदय, तपनिरत, प्रणतानुकूल ।"


    जहां राम का रूप चित्रण किया गया है वहां भक्ति की दृष्टि से ही-


    " श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवमय

       दारुणम् ।

       नवकंज -लोचन, कंज-मुख, कर-कंज,    

       पद- कंजारुणं ।।"


    यह पद 'विनयपत्रिका' के कितने ही पाठकों को आनंदविभोर कर देता है ।


    विनय के पदों में भक्ति रस के उपचायक  संचारी भावों की व्यंजना अत्यंत हृदय स्पर्शी है । 'विनयपत्रिका' के भक्तिरस का प्राण- तत्व -दैन्य निवेदन है । दैन्य भाव के  कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं-


      " तू दयालु, दीन हौं, तू दानि , हौं भिखारी।

       हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप पुंज हारी ।।"


      "ऐसो को उदार जग माहीं।

      बिनु सेवा जो द्रवै दीनपर राम सरिस कोउ

      नाहीं।।"


    दैन्य- निरूपक पदों में कवि ने अपने निर- हंकार हृदय को निश्चल भाव से खोलकर रख दिया है । उसकी हार्दिक अभिव्यंजना में सहृदय मात्र के चित्र का प्रतिबिंब झलकता है ।


    ( २ ) गुण-वृत्ति

    'विनयपत्रिका 'आत्मानिवेदन- भक्ति की रचना है ।तद्नुरूप उसमें माधुर्य गुण की अतिशयता है। स्रोत- शैली में लिखे गए  आरंभिक पदों में ओजगुण का संनिवेश हुआ है ।कतिपय दार्शनिक स्थलों को छोड़ - कर प्राय: सर्वत्र ही प्रसाद गुण व्याप्त है। माधुर्य गुण का एक उदाहरण द्रष्टव्य हैं-

    "कबहिं देखाइहौ हरि चरन ।

      समन सकल कलेस कलिमल सकल 

      मंगलकरन ।।

      दरस आस पियास तुलसीदास चाहत

      भरन ।।"

    यहां माधुर्य गुण है, उसके अनुरूप उपनाग- रिका वृत्ति की कोमलकांत पदावली है। इस पद में प्रसाद गुण भी है ।


    'विनयपत्रिका' का कला पक्ष

    यह कृति जहां भाव पक्ष की दृष्टि से अत्यधिक रमणीय है वहीं इसका कला पक्ष भी पर्याप्त परिष्कृत और मनोहारी है। इस कृति के कला पर प्रकाश डालते हुए हम इसकी भाषा -शैली तथा अलंकार योजना का विवेचन करेंगे ।


    ( १ ) भाषा- शैली

    तुलसी के काव्य में भाव और भाषा का  पूर्ण सामंजस्य मिलता है। वे विषय के अनुकूल भाषा का प्रयोग करने में पूर्ण दक्ष हैं।

    'विनयपत्रिका 'में तुलसी ने भक्ति और विनय के अनुकूल सरल एवं किलष्ट सभी प्रकार की भाषा का प्रयोग किया है। भाषा पर उनके एकाधिकार का एक प्रमाण यह है कि उन्होंने शब्द-ज्ञान, वाक्य पटुता , अर्थ- गौरव, उक्ति-वैचित्र्य तथा कहावतों- मुहावरों के प्रयोग की कुशलता का अद्भुत परिचय दिया है।

    'विनयपत्रिका 'की साहित्यिक भाषा ब्रजभाषा प्रौढ़,प्रांजल ,सुव्यवस्थित और और अर्थगौरव संपन्न है ।


    शब्द ज्ञान

    तुलसीदास ने 'विनयपत्रिका ' में तद्भव और तत्सम  दोनों प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया है ।शब्दों का रूप कहीं-कहीं पूर्णत: ब्रज का है है और कहीं-कहीं संस्कृत- व्याकरण से अनुशासित है। इससे तुलसी का शब्द ज्ञान प्रकट होता है। तत्सम् शब्दावली का एक उदाहरण देखिए-

       "श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवमय

       दारुणम् ।

       नवकंज -लोचन, कंज-मुख, कर-कंज,    

       पद- कंजारुणं ।।"

    इन पंक्तियों में राम के रूप का भक्ति भावना के साथ सुंदर चित्र अंकित कर सकने में तुलसी की भाषा पूर्णतः  समर्थ है ।


    तद्भव शब्दावली -युक्त भाषा- प्रयोग का भी एक उदाहरण देखिए-


    "जानि पहिचानि मैं बिसारे हौं कृपानिधान।

      एतो मान ढीठ हौं उलटि देत खोरि हौं ।"


    इन दोनों उदाहरणों में तुलसी का शब्दज्ञान प्रकट होता है।


    तुलसी के शब्द ज्ञान की विशदता का एक प्रमाण यह भी है कि उन्होंने अवधी, बुंदेल- खंडी, भोजपुरी, अरबी -फारसी की शब्दा- वली के साथ-साथ देशज शब्दों का भी प्रयोग किया है।


    'भोजपुरी 'के प्रयोगों का एक उदाहरण देखिए-

    " राम कहत चलु, राम कहत चलु ,

      राम कहत चलु भाई रे ।

      नाहिंन भव बेगारि महं परिहौं छूटत

      अति कठिनाई रे।।"


    अरबी फारसी के शब्द :-

    निशान, सौदा, सदम, निवाज, तकिया, शरम, लायक, बुलंद, गुल आदि ।


    बुंदेलखंडी के शब्द :-

    खेरे, चारित, पनवाई आदि।


    देशज शब्द :

    पेट,बिगारी,ठौर,निदरि आदि।


    बघेली शब्द:

    बागत ।


    मराठी शब्द: 

    पोकट ।


    कहावत, मुहावरे और लोकोक्तियां

    गोस्वामी तुलसीदास ने' विनयपत्रिका' में अनेकानेक कहावतों, मुहावरों और लोको- क्तियों का प्रयोग करके कृति के भाषा-सौंदर्य की अभिवृद्धि की है। कुछ उदाहरण देखिए-

    * होई न बांको बार

    * दूध को जर्यो पित्त फूंक-फूंक मह्यो है।

    * तू हिये की आंखनि हेरि।

    * बिनु मोल बिकाउं

    * गांठी बांध्यो दाय तो परख्यौ, न फेरि खर खोट ।


    वाक्य पटुता

    तुलसीदास  की वाक्य- योजना में भी पर्याप्त पटुता का प्रमाण मिलता है ।उन्होंने वाक्यों का गठन तथा प्रयोग भावों के अनुकूल किया है ।एक उदाहरण देखिए -            

    "कबहुंक अम्ब अवसर पाइ।

      मेरिऔ सुधि धाइबी, कछु करुन- कथा

      चलाइ ।।"


    अर्थ गौरव

    'विनयपत्रिका 'की भाषा -शैली की एक विशेषता यह निर्दिष्ट की जा सकती है कि उसमें अर्थ गौरव का सम्यक् निर्वाह किया गया है । कवि का मूल उद्देश्य ऐसी भाषा का प्रयोग करना है जो कि भाव सौंदर्य और अर्थ गौरव का पूर्ण निर्वाह कर सकें।


    इसी प्रकार विनय-भाव की व्यंजना के लिए जिसकी आलोच्य कृति में प्रधानता है- कवि की अभिव्यंजना सीधे -सरल हृदय से सहज रूप में स्फूर्त हुई है ।एक उदाहरण देखिए-

    "केसव ! कहि न जाइ का कहिये

      देखत तव रचना विचित्र हरि!

      समुझि मनहिं मन रहिये ।।"


    उपर्युक्त पद की अर्थ गौरव की दृष्टि से जितनी भी प्रशंसा की जाए वह कम है।


    उक्ति वैचित्र्य

    उक्ति वैचित्र्य की दृष्टि से भी 'विनयपत्रिका' एक प्रशंसनीय काव्य कृति है। विनय के अनेक पदों में तुलसी की भावुकता अपना बांध तोड़कर वैचित्र्य की सीमा में प्रवेश कर गई है। एक उदाहरण देखिए-

    "बावरो रावरो नाह भवानी ।

    दानि बड़ो दिन देत दए बिनु वेद बड़ाई

    भानी ।।"


    इसी प्रकार के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं, जिनमें कवि ने अपने उक्ति वैचित्र्य के बल पर अपने आराध्य को द्रवित करने का सफल प्रयास किया है।


    भाषा में ओज के बाहुल्य के साथ-साथ प्रसाद की प्रधानता भी दर्शनीय है-


    "गल कंबल बरुना बिभाति जनु लूम लसति

      सरिता सी ।

      लोल दिनेस त्रिलोचन लोचनं, करन घंट

      घंटा-सी ।।"


    भाषा का कितना सुंदर प्रवाह है, माधुर्य और प्रसाद की सुगंध तो शब्द-प्रति-शब्द में मिलती है । वास्तव में तुलसी का प्रत्येक शब्द प्रभावोत्पादक, सजीव और सुंदर है। उनकी शैली मधुर ,विलक्षण और हृदय ग्राहिणी है । 'विनयपत्रिका' में संगीत सौंदर्य की रमणीयता दर्शनीय है।


    ( २ ) अलंकार योजना

    'विनयपत्रिका' में तुलसीदास ने अपने भावों और उनकी अभिव्यक्ति को सुंदर रूप देने के लिए अलंकारों का पर्याप्त प्रयोग किया है। तुलसीदास के काव्य में अलंकारों की

    रमणीयता भी दर्शनीय है। अनुप्रास ,यमक, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण आदि अलंकारों से कवि ने कविता कामिनी के मोहक रूप को और भी सुसज्जित  कर दिया है। अलंकार के शब्दगत एवं अर्थगत- दोनों ही भेदों को उनके काव्य में महत्वपूर्ण स्थान मिला है ।


    शब्दालंकारों में अनुप्रास, यमक, श्लेष, लाटानुप्रास और श्लेष वक्रोक्ति की परिगणना की जाती है। इनमें से गोस्वामीजी का रुझान अनुप्रास अलंकार की ओर अधिक रहा है । कुछ उदाहरण देखिए-


    अनुप्रास अलंकार

    (१) राम राम रटु, राम राम रटु,

         राम राम जपु जीहा ।


    (२) राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे।


    वृत्यानुप्रास   

    " दीनबंधु दीनता दारिह-दीह  दोष-दुख

       दारुन-दुसह-दर-दरप हरन ।।"

    उपर्युक्त पंक्तियों में  ' द ' वर्ण की आवृत्ति दर्शनीय है ।


    यमक अलंकार

    " हरि सब आरती -आरती राम की ।"

    यहां पर आरती -आरती में यमक है।


    अर्थालंकारों में उपमा, रूपक ,उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास , संदेह, भ्रांतिमान, दृष्टांत, निदर्शना, व्यतिरेक, विभावना, विरोधाभास, सहोक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग उन्होंने पूर्णत: स्वाभाविक रूप में किया हैं।


    उपमा अलंकार

    " राम कबहुं प्रिय लागि हौ,

       जैसे नीर मीन को ।"


    रूपक अलंकार

    " श्रीहरि, गुरु -पद कमल भजहु मन

       तजि अभिमान ।"


    दृष्टांत अलंकार

    " बड़े को ही ओट, बलि, बांचि,आए छोटे हैं,

      चलत खरे के संग ,जहां-तहां खोटे हैं ।"


    इस पद में भाव यह है कि बड़े व्यक्तियों के कर्मों से छोटा व्यक्ति भी  तर जाता है।


    विभावना अलंकार

    "केसव ! कहि न जाइ का कहिये

      देखत तव रचना विचित्र हरि!

      समुझि मनहिं मन रहिये ।।"


    अर्थान्तरन्यास अलंकार

    " मीन तेन लाभ लेस पानी पुण्य पीन को

    जल बिन थल कहा मीच बिनु मीन की ।"


    यहां प्रशंसा का पात्र मछली है , जल की धारा नहीं ।


    उपर्युक्त अलंकारों के अतिरिक्त ' विनय- पत्रिका'  में उभयालंकारों की भी सुंदर नियोजना हुई है । जैसे -संदेश संकर


    इस प्रकार ' विनयपत्रिका 'की अलंकार योजना में सर्वत्र भाव, भाषा एवं अलंकारों का अद्भुत साम्य मिलता है।


    उपसंहार

    संक्षेप में कहा जा सकता है कि भाव पक्ष की दृष्टि से तो 'विनयपत्रिका' बहुत ही समृद्ध और प्रौढ़ रचना है ही ,काव्य -कला की कसौटी पर भी यह एक उत्कृष्ट कृति सिद्ध होती है। उसमें तुलसी का कला- संबंधी एक पूर्ण दृष्टिकोण मिलता है। भाव, भाषा, छंद अलंकार योजना,रस, उद्देश्य और विभिन्न दृष्टियों से हम उसमें कवि की अद्भुत सफलता के दर्शन करते हैं। यही कारण है कि हिंदी साहित्य में 'विनयपत्रिका' का अत्यंत उच्च स्थान है एवं काव्य -रसिक तथा भक्त- दोनों उसे समान अभिरुचि से पढ़ते हैं।




    Written By:

     Dr. Gunjan A. Shah 
     Ph.D. (Hindi)
     Hindi Lecturer (Exp. 20+)
     

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