कबीर का रहस्यवाद | कबीर के रहस्यवाद की धाराएं (प्रकार) | अवस्थाएं | विशेषताएं

कबीर का रहस्यवाद | कबीर के रहस्यवाद की धाराएं (प्रकार) | अवस्थाएं | विशेषताएं

#Kabir ka rahasyavad

कबीर का रहस्यवाद | Kabir Das

कबीर के रहस्यवाद पर विभिन्न विद्वानों के मत 

डॉ रामकुमार वर्मा के मताअनुसार कबीर का रहस्यवाद-

"रहस्यवाद आत्मा की उस अन्तर्हित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शांत और निश्छल संबंध जोड़ना चाहती है ,यह संबंध यहां तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अंतर नहीं रह जाता ।"

" संतो जागत नींद न कीजै ।"

कबीर का रहस्यवाद अपनी विशेषता लिए हुए है। वह एक ओर तो हिन्दुओं के अद्वैतवाद के क्रोड़ में पोषित है और दूसरी और मुसलमानों के सूफी सिद्धांतों को स्पर्श करता है ।इसका कारण यह है कि कबीर हिंदू और मुसलमान दोनों प्रकार के संतों के सत्संग में रहे थे और वे प्रारंभ से ही यह चाहते थे कि दोनों धर्म वाले आपस में दूध पानी की तरह मिल जाए। इसीलिए उन्होंने दोनों के वशीभूत होकर अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है। उनके  रहस्यवाद में अद्वैतवाद और सूफ़ीमत की गंगा- जमुनी साथ-साथ बह रही है।

" आशिक होकर सोना क्यारे ?

  पाया है फिर खोना क्यारे ?


अद्वैतवाद ही मानों रहस्यवाद का प्राण है।


" जल में कुंभ कुंभ में जल है,

   बाहर भीतर पानी ।

   फूटा कुंभ जल जल ही समाना,

   यह तथ कथ्यो गियानी ।।"


यही अद्वैतवाद कबीर के रहस्यवाद का आधार है। उनके अनुसार जीव और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है । वे जीव को  ब्रह्म का अंश   मानते हैं। उन्होंने स्पष्ट घोषित किया है-


" कहु कबीर यहु राम को अंश जस कागद                            

   पर मिटै न मंसु । "


एक स्थल पर  उन्होंने दोनों के संबंध को बिंदु और समुंद्र के दृष्टांत से भी स्पष्ट किया है-

" हेरत हेरत हे सखी........

   +          +           +          ‌+

   आपहि  बीज, वृच्छ अंकूरा ।

   आप फूल फल छाया ।।

   आप ही सूर, किरन,परकासा ।

   आप ब्रह्म जिव माया ।। "


कबीर को अद्वैतवादी सिद्ध करने के लिए उपर्युक्त पंक्तियां बहुत सुंदर उदाहरण है। विद्वानों ने कबीर को अद्वैतवादी ही कहा है। इस विषय में कहे हुए डॉ. पीतांबरदत्त वडथ्वाल के निम्नलिखित विचार दृष्टव्य  हैं-

"संत संप्रदाय के इन अद्वैती संतों ने इस सत्य को स्वयं अपने जीवन में अनुभूत कर दिया था। कबीर ने इस संबंध में अपने भाव बड़ी दृढ़ता और स्पष्टता के साथ व्यक्त किए हैं ।आत्मा और परमात्मा की एकता में उनका अटल विश्वास था। इन दोनों में इतना भी भेद नहीं कि हम उन्हें एक ही वस्तु के दो पक्ष कह सकें। पूर्ण ब्रह्म के दो पक्ष हो ही नहीं सकते। दोनों सर्वथा एक है।"

दूसरा आधार है मुसलमानों का  सूफी मत।

सूफीमत में ईश्वर की भावना स्त्री रूप में मानी गई है। वहां भक्त पुरुष बनकर ईश्वर रूपी स्त्री की प्रसन्नता के लिए सौ जान से निसार होता है, उसके हाथ की शराब पीने के लिए पीने को तरसता है, उसके द्वार पर जाकर प्रेम की भीख मांगता है। ईश्वर एक दैवी स्त्री के रूप में उसके सामने उपस्थित होता है ।


अंत में हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अद्वैतवाद में आत्मा और परमात्मा के एकीकरण -मिलन -संयोग होने में माया का (चिंतन का) बड़ा महत्वपूर्ण भाग है, और सूफ़ीमत में  उसीके लिए  हृदय की  चार अवस्थाओं और प्रेम का महत्वपूर्ण स्थान है ।

जैसा कि ऊपर कहा गया है कबीर का रहस्यवाद हिंदुओं के अद्वैतवाद  और मुसलमान के सूफीमत पर आश्रित है । इसीलिए कबीर ने अपने रहस्यवाद के  स्पष्टीकरण में दोनों की अद्वैतवाद और  सूफीमत की बातें ली है। फलत: उन्होंने अद्वैतवाद से माया  और चिंतन और सूफी मत से प्रेम लेकर अपने रहस्यवाद की सृष्टि की ।


डॉ. त्रिगुणायत के मतानुसार कबीर का रहस्यवाद-

" कहीं पर उनमें सूफियों के प्रेममार्ग का निरूपण मिलता है और कहीं पर हठ- योगियों के पारिभाषिक शब्दों एवं प्रक्रियाओं का रहस्यात्मक वर्णन है । कहीं

वे सिद्धों  की संध्या भाषा की शैली का अनुकरण करते हैं और  कभी उपनिषदों के ढंग पर रहस्यात्मक शैली में तत्व का प्रति- पादन।"


रहस्यवाद की अवस्थाएं

प्रेम की अनुभूति तभी होती है जब कवि उस परमात्मा के प्रति अपना निश्छल और शांत  संबंध स्थापित करने का प्रयत्न करता है । जब उस दिव्य ज्योति के साथ एकाकार हो जाना चाहता है।  यहीं से रहस्यवाद की प्रक्रिया आरंभ होती है । इसकी तीन अवस्थाएं हैं


(१) विरहावस्था की स्थिति

कबीर की रचनाओं में विरह की तीव्रता से युक्त पद अत्यंत  मधुर है।  ऐसा प्रतीत होता है कि मानो कोई  विरहिणी नारी अपने पति के वियोग में व्याकुल हो रही है ।ऐसे पदों को देखकर महाकवि कालिदास की शकुंतला, भवभूति के राम ,सूर की गोपियां तथा जायसी की पद्मावती की याद आ जाती है। कबीर कहते हैं-


" नैन कमण्डल करी लिये ,

   वैरागी दोउ नैन ।

   मांगे दरस मधु करी,

   छक्के रहैं दिन रैन ।। "


कबीर मात्र उस प्रिय के दर्शन चाहते हैं, लेकिन कितना समय चला गया, प्रिय के दर्शन नहीं हुए। कबीर उसका नाम रटते- रटते और प्रतीक्षा करते- करते बेचैन हो गए -

" जीभडियां छाला परा,

   राम पुकारी- पुकारी ।

   आंखड़ियां झांई पडी,

    पंथ निहारी- निहारी ।।"


कबीर के विरहजन्य भावों में हमें आचार्यों द्वारा निर्धारित दशों अवस्थाओं का चित्रण मिलता है ।कबीर ने उस प्रिय को प्राप्त करने के लिए स्थान -स्थान की खोज कर डाली-


" वृंदावन ढूंढ्यो, ढूंढ्यो जमुना के तीर।

   राम- नाम के कारने, जन खोजती  

   फिरै  कबीर ।।"


और इस खोज का एक मात्र कारण यह है कि ऐसा विरह अब कबीर से सहा नहीं जाता-


" बालम आओ हमरे गेहरे

   तुम बिन दुखिया देहरे ।

   एक मेक होय सेजन सौवे

   तब  लग कैसो नेहरे ।।"


एक मेक होकर आनंद सिंधु में लहराने की यह भावना कितनी मार्मिक है।

कबीर की तीव्र लालसा है-


" नैनन की करि कोठरी,

  पुतली पलंग बिछाई ।

  पलकन की चिक डारिकै,

  पिउको लेऊं रिझाई ।। "


नैनों की कोठरी में प्रिय को बंद कर लेने की भावना इसलिए है कि वह कबीर के नैनों में समा गया है-


" आठ पहर चौंसठ घड़ी,

   मेरा और न कोई ।       

   नैनां मांहीं तू बसे,

   नींद को गैर न होई ।।"


इतना होने पर भी वह छलिया कबीर को नहीं मिला ‌। न उसका कोई संदेश न उसका दर्शन और न दर्शन के लिए कोई संकेत। कबीर की तड़पती हुई आत्मा पुकार उठती है-


यह तनको दिवला करौं,

बाती मेलौं जीव।

लोहू सींचों तेल ज्यों,

कब मुख देखों पीव ।। "


अब तो कबीर को यह प्रतीत होने लगा कि इस जन्म में प्रिय मिलन नहीं होगा, उनकी मृत्यु बहुत पास आ गई है। अत: वे मरते समय भी और मरने के बाद भी उसके दर्शन में आस्था रखते हैं। वे कहते हैं-


" कागा सब तन खाइयो

  चुन चुन खाइयो मांस ।

  दो नैना मत खाइयो,

  पिया मिलन की आस ।। "


कितनी मार्मिकता है इस" पिया मिलन की आस "में।

कबीर अपनी रहस्यानुभूति की प्रथम दशा का वर्णन करते हुए कहते हैं-

" मेरे सतगुरु ने मुझे एक विचित्र से शब्द

बाण द्वारा घायल कर दिया है और उसकी चोट ऐसे मर्मस्थल पर लगी कि  उसके कारण मुझे गूढ़तत्व सूझ गया ।"

"सतगुरु ने मुझे ऐसा प्रसंग बताया जिसके जानते ही मेरे ऊपर प्रेम-वर्षा हो गई और मेरी आत्मा भीतर तक भीगकर उसमें सराबोर हो गई।"


(२) मिलन की अवस्था (मिलनाभास की स्थिति)

रहस्यवाद के अनुभव की दूसरी अवस्था उसके उक्त प्रकार के विरह द्वारा तथा ये जाने पर ही आती है। कबीर ने इस अवस्था का वर्णन बड़े सुंदर ढंग से किया है-


" उस अनंत का तेज अनेक  सूर्यो के समान जान पड़ता था। और पानी ने उस दृश्य को अपने पति के साथ जागृत होकर देखा। वह  तेज नितान्त अशरीरी था और प्रकाश बिना सूर्य अथवा चंद्र के ही हो रहा था ।दास अपने स्वामी की सेवा में आनंद विभोर होकर लगा हुआ था । पर ब्रह्म के उस तेज की समता किसी वस्तु के साथ करु़ं, वह शोभा कहने की नहीं है ,उसे देखते ही बनता है।"


इसके बाद कबीर उस वास्तविक ढंग का भी परिचय देते हैं जिस प्रकार उन्हें उक्त दशा उपलब्ध हुई। वे कहते हैं-


"मैं सीमा का उल्लंघन कर, निस्सीम तक पहुंच गया और शून्य सरोवर में स्नान करके  वहां विश्राम करने लगा, जहां मुनियों तक की गति नहीं है। इस समय मेरे शरीर में प्रेम का प्रकाश हो रहा था, उसमें अनेक प्रकार की सिद्धियां जागृत हो चुकी थीं, मेरा संशय दूर हो चुका था और मेरा प्रियतम मिल चुका था।" मैं जी खोलकर गाढ़ लिंगन कर रहा था


" घुंघट खोल अंग भर भेटें

   नैन आरती साजै ।"


और अधीर-सा बन गया था, भला यह  दशा दो शरीरों के रहते किस प्रकार संभव हो सकती थी ।"


कबीर के ऊपर प्रेम का बादल बरस गया-


" सतगुरु हम सों रीझि करि

  एक कह्यो पर संग ।

  बरस्या बादल प्रेम का

  भीजि  गयो सब अंग ।।"


उस समय अनहद का बाजा बज रहा था अमृत रस की अखंड वर्षा हो रही थी, उस अकथनीय के भीतर प्रवेश होते ही  ब्रह्म ज्ञान उत्पन्न हो गया था और प्रेम- ध्यान लग चुका था ।


" जहां खेलत वसंत ऋतु राज ।

   अनहद बाजा बजे बाज ।।"


वास्तव में जब तक मुझमें 'अहम् 'का अस्तित्व था तब तक हरि नहीं थे और अब 'हरि' के आते ही अहम् का लोप हो गया-


" जब मैं था तब वह नाहीं

   अब वह है हम नाहीं ।

   प्रेम गली अति सांकरी

   तामें दोन समाहीं ।।"


कबीर ने इस परोक्षानुभूति का वर्णन वर-वधू की विवाह विधि के द्वारा भी किया है-


  "दुलहिनी गावहु मंगलाचार ,

  तन रति करि मैं,  मन रति करि हूं ।।

  पंच तत बाराती,

   रामदेव मोरे पाहुने आए

   मैं जोबन मैं माती ।। "


(३) मिलन अथवा पूर्ण तादात्मय

यह वह स्थिति है, जब साधक के जीवन में पूरी कायापलट हो जाती है और वह सिद्धावस्था को पहुंच जाता है। अद्वैतवादी इसको 'जीवन्मुक्त' की दशा कहते हैं और कबीर यहां तक पहुंचे हुए महापुरुषों को ही 'संत' कहते हैं ।

रहस्यवाद की यह तीसरी अवस्था सबसे महत्वपूर्ण है ।यही वह दशा है जिसे कभी ने संतों की सिद्धावस्था बतलाया है ।इस स्थिति के परिपक्वावस्था को ही उन्होंने सहजसमाधि कहा है। कबीर को यह 'सहज' शब्द अत्यंत ही प्रिय है प्राणों  से भी प्यारा। सहजावस्था  का  परिचय देते हुए वे कहते हैं -


सहज सहज में तो सभी कहा करते हैं, किंतु कोई उसे पहचान नहीं पाता। सहज की दशा वस्तुत: वह स्थिति है जिसमें हमारी पांचों इंद्रियों उस परम तत्व को सदा स्पर्श करती हैं ।"


" जहं जहं जाऊं सोई परिक्रमा

जो कछु करुं सौ सेवा ।

जब सोऊं तब करुं  दंडवत

पूजूं और न देवा ।।


(चलना ही परिक्रमा ,दैनिक कार्य ही सेवा ,सोना ही प्रणाम, बोलना ही नाम जप,खाना पीना ही पूजा है)

यह स्थिति ही आध्यात्मिक जीवन का अंतिम विकसित रूप है।


कबीर इस अवस्था का वर्णन करते हुए कहते हैं-

" जिस समय मेरे मन का भ्रम उसमें परिवर्तन आते ही दूर हो गया और हरि मेरे सामने सहज हृदय में ही केलि करते दीख पड़े उस समय मुझे इस बात का बोध हो गया कि ' मैं 'एवं ' तैं ' अथवा ' ' 'अहम् ' या ' इदम् ' नाम की भावनाओं में कोई अंतर नहीं है । औ प्रत्येक घट में उस अखंड का ही अस्तित्व है ।"


ऐसी दशा में कबीर को प्रतीत हुआ कि सारे ब्रह्मांड में केवल वही एक ओतप्रोत है।

कबीर का सांईं आखिर कठिन परीक्षा और दीर्घ प्रतीक्षा के बाद मिल ही गया। कबीर  के रोम-रोम में आनंद का संगीत फूटने लगा-


" दुलहिन गावहु मंगलाचार....... तथा


   कबीरा प्याला प्रेम का,

   अंतर लिया लगाई।

   रोम-रोम पिउ पिउ करें,

   मुख की सरधा नाहीं ।।"


अब घूंघट खोलकर अंगभर भैंट हुई -


"घूंघट खोल अंग भर मेंटे

  नैन आरती साजै ।"


अब तो कबीर पिया के देश को छोड़ना नहीं चाहते -


" नैहरवा हमको नहिं भावै

  साईं की नगरी परम अति सुंदर

  जहां कोई आवै न जावै ।"


प्रियतम को पाती लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अब तो वह तन ,मन ,नैन में समा गया है-


" प्रियतम को पतियां लिखूं,

  जो कहुं होई  विदेस ।

  तन मन नैनन में बसे

   वाकों कौन संदेस ।।"


कबीर के रहस्यवाद की धाराएं (प्रकार)

(१) भावमूलक या प्रेममूलक (अनुभूतिमूलक)

अनुभूतिमूलक रहस्यवाद अत्यधिक भावप्रवण ,सरस और सुकोमल होता है। आस्तिकता ही रहस्यवाद की विशेषता है । भावमूलक रहस्यवादी के लिए आस्तिक जिज्ञासु और श्रद्धालु होना नितांत आवश्यक होता है। ऐसा उपास्य दिव्य प्रेम और दिव्य सौंदर्य का प्रतीक होता है।


जायसी में प्रेम और सौंदर्य की अभिव्यक्ति प्रथम कोटि की मिलती है। दूसरी कोटि के उदाहरण कबीर हैं।

" उलटी चाल मिले पर ब्रह्म सो सतगुरु हमारा ।"


भावमूलक रहस्यवाद का प्राणतत्व प्रेम या भाव है । इस प्रेम का ही दूसरा पक्ष विरह है। साधक में इस प्रेम और विरह का प्रवर्तन करने का श्रेय गुरु को होता है। 

कबीर ने स्पष्ट लिखा है  -

" गुरु ने प्रेम का अंक पढाय दियारे  ।"


(२) साधना मूलक या यौगिक रहस्यवाद

आत्म साक्षात्कार के लिए योग आवश्यक है। योग के भेद निम्नलिखित हैं-

१. हठयोग २. राजयोग 

३. लय योग  ४. मंत्र योग 

५. आध्यात्म योग


हठयोग के आधार पर ही कबीर ने साधनात्मक रहस्यवाद खड़ा किया। कबीर ने नाड़ी ,चक्र, कुंडलिनी का वर्णन किया।  कबीर ने षट्चक्रों का वर्णन बड़े रहस्यमय ढंग से किया-

"षटदल कमल निवासिया।

  चहुंको फेरि मिलाप ये ।। "


(३) आध्यात्मिक रहस्यवाद

आध्यात्मिक रहस्यवाद की अभिव्यक्ति अन्योक्ति, समासोक्ति ,रूपक आदि अनेक भावात्मक और काव्यात्मक  शैलियों के सहारे होती है।

एक उदाहरण देखिए-

    " माली आवत देखकर,

       कलियन करी पुकारी।

       फूले- फूले चुन लिये,

   ‌‌    काल हमारी बारी । "


(४) अभिव्यक्ति मूलक रहस्यवाद

(क) आध्यात्मिक तथ्यों का उलट- वासियों के रूप में कथन करना ।

(ख) साधारण  बातों को अद्भुत रूप से  रोचक शैली में प्रकट करना ।

(ग) पारिभाषिक शब्दों के सहारे अस्पष्ट  शैली में किसी अस्पष्ट तथ्य का कथन करना ।

(घ) लक्ष्यहीन रूपकों, अन्योक्तियों  आदि अलंकारों तथा प्रतीकों की योजना करना ।

(ङ) कबीर की उलटबांसियां अभिव्यक्ति मूलक रहस्यवाद का प्राण है।


" नदियां जल कोयला भई,

   समुंद्र लागी आग ‌।

   मच्छी रुख चढ गई,

   देख  कबीरा आग ।।"


( समुंद्र = ब्रह्म, नदियां= कुप्रवृत्तियां, मछली= जीव )


कबीर के रहस्यवाद की अभिव्यक्ति

रहस्यवाद की अनुभूति स्वरलहरी की भांति होती है।  रहस्यानुभूति श्रद्धा- मूलक  होती है। तर्क का यहां कोई प्रयोजन नहीं होता।  रहस्यवाद की दृष्टि असामान्य होती है । कबीर की रहस्या- त्मक अभिव्यक्ति की पद्धतियां निम्न- लिखित हैं -

(१) प्रतीकात्मक पद्धति

(क) दाम्पत्य प्रतीक

" कियो  सिंगार  मिलन के ताई

  हरि न मिले जब जीवन गुसाईं ।

  हरि मेरा पीव मैं  हरि की बहुरिया

  राम बड़े मैं छुटक लहुरिया ।"


(ख) हठयौगिक प्रतीक

 (गगन मंडल, ब्रह्मरंघ, सूर्य, चंद्र)


(ग) रूपकात्मक प्रतीक

१. यह संसार कागद की पुड़िया, बूंद पड़े घुल जाना है।

२. जल में कुंभ कुंभ में जल है,

    बाहर भीतरि पानि।

    फूटा कुम्भ जल जल ही समाना,

    यह तथ कह्यो ज्ञानी ।


(२) उलटबांसी

कबीरदास जी ने अपने बहुत रहस्यात्मक तथा गंभीर विचारों को उलटबासियों में ही प्रकट किया है।अकथटंकहानी उलटबांसियों  के द्वारा ही कही गई है ।कहीं-कहीं रूपक प्रधान प्रतीकात्मक उलटबांसियों का प्रयोग किया गया है-


' बिटिया ने बाप जायो' अथवा 'बांझ  का पूत  पिता बिन जाया'।


(३) अलंकार

भावों को तीव्रता प्रदान करने के लिए कबीर ने अलंकारों का प्रयोग किया है। कबीर के रूपक उत्कृष्ट हैं।

(क) हठयौगिक रूपक

(ख) प्रकृति परक रूपक

(ग) जुलाहा व्यवसाय संबंधी रूपक

(घ) अरूप तत्वों के रूपक


कबीर के दिव्यवचन उसी प्रकार रूपकों में छिपे रहते हैं जिस प्रकार स्वर्ण खान में छिपा रहता है।


डॉ. फ्रूड के अनुसार-

" आत्मा की भाषा रूपकों में ही प्रकट होती है।"

यह बात कबीर के विषय में में बिल्कुल सही है।

कुमारी अण्डरहिल ने कबीर को भारतीय रहस्यवाद के इतिहास में बड़ा ही रोचक व्यक्तित्वपूर्ण रहस्यवादी कहा है। इस विदुषी ने अपने " practical Mysticism " नामक ग्रंथ में लिखा है-


" रहस्यवाद भगवत्  सत्ता ह के साथ एकता स्थापित करने की कला है।"


डॉक्टर श्यामसुंदर दास के मतानुसार -

" रहस्यवादी कवियों में कबीर का स्थान सबसे ऊंचा है। शुद्ध रहस्यवाद केवल उन्हीं का है ।"


कबीर के रहस्यवाद की विशेषताएं

(१) कबीर के रहस्यवाद की पहली विशेषता यह है कि उनके रहस्यवाद को हम किसी विशेष प्रकार के रहस्यवाद की कोटि में नहीं रख सकते। सभी प्रकार के रहस्यवादों की सृष्टि उनमें हुई है ।

(२) प्रवृत्यात्मकता,वह एकांतिक नहीं है।

(३) अद्वैतभावना कबीर के रहस्यवाद का प्राण है ‌।

(४) उनके रहस्यवाद में विकासवाद का भी संदेशा निहित है।


" देखो कर्म कबीर का कछु पूरब जनम

  का लेख ,

  जाका महल न मुखि लेहैं, सो दोसत

  किया अलेख ।"


इस प्रकार हम निस्संकोच कह सकते हैं कि कबीर  हमारी भाषा के श्रेष्ठ रहस्य- वादी कवि हैं उनका रहस्यवाद भारतीय है।


Written By:

 Dr. Gunjan A. Shah 
 Ph.D. (Hindi)
 Hindi Lecturer (Exp. 20+)
 

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